गांधी जयंती पर विशेष: गांधी टोपी

 गांधी जयंती पर विशेष:

                        गांधी टोपी
   
जनक्रांति कार्यालय  रिपोर्ट आलेख : डॉ० परमानन्द लाभ


  'गांधी टोपी' के नाम से मशहूर इस टोपी का आविष्कार न तो गांधी ने किया और न अधिक दिनों तक उन्होंने इसे धारण किया : डॉ० परमानंद लाभ 

साहित्य मंच, भारत ( जनक्रांति हिन्दी न्यूज बुलेटिन कार्यालय 03 अक्टूबर, 2021 ) । खादी से तैयार सिर पर धारण किए जाने वाला वह पोशाक जो आगे और पीछे से जुड़ा हुआ और बीच से फैला हुआ होता है, को 'गांधी टोपी' कहा जाता है।
   'गांधी टोपी' के नाम से मशहूर इस टोपी का आविष्कार न तो गांधी ने किया और न अधिक दिनों तक उन्होंने इसे धारण किया। आमतौर पर भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के नेताओं और कार्यकर्ताओं द्वारा यह टोपी अपनायी गई और आजादी के बाद राजनीतिक लोगों के लिए आजाद भारत में पहनने हेतु एक प्रतिकात्मक परम्परा बन गई।


  

भारत में प्रथम असहयोग आन्दोलन १९१८-२१ में हुआ था,इसी दौरान 'गांधी टोपी' की लोकप्रियता बढ़ गई। इससे लोगों की भावना तब और जुड़ गई,जब १९२१ में ब्रिटिश सरकार ने इसके उपयोग पर प्रतिबंध लगाने का हर संभव प्रयास किया और तब गांधी ने स्वयं एक-दो साल के लिए १९२०-२१ में इसे धारण किया। फिर, परिणाम यह हुआ कि गांधी के अनुयायियों व कांग्रेसियों में इसका उपयोग आम हो गया।स्वाधीनता आंदोलन का एक सम्बन्ध तब निहित था,जब किसी भारतीय ने गांधी टोपी पहन रखी थी।
  वैसे भारत में टोपी अथवा पगड़ी पहनने या सिर ढकने की परम्परा अतिप्राचीन है। गांधी के जन्म लेने के बहुत पहले सदियों से उत्तर प्रदेश, गुजरात, बंगाल, बिहार,कर्णाटक व महाराष्ट्र आदि में टोपी पहनी जाती रही है। अतएव यह कहना सार्थक सिद्ध होता है कि गांधी ने मात्र इसकी लोकप्रियता बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई।
   १९०७-१४ के दौरान गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में वकालत करते थे।इसी अवधि में अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों से दु:खी होकर उन्होंने सत्याग्रह का रास्ता अपनाया।इसी बीच अंग्रेजों ने एक नियम वजूद में लाया कि हर भारतीय को अंगुलियों की निशानी देनी होगी,जिसका गांधी ने डटकर खिलाफत की। इन्हें जेल में डाल दिया गया, जहां इन्हें भेदभाव का शिकार होना पड़ा। जेल में क्रूर शासक के द्वारा भारतीय कैदियों के लिए एक विशेष प्रकार की टोपी पहनना जरूरी कर दिया। आगे चलकर गांधी ने इस टोपी को सदा के लिए धारण करने और प्रसारित करने की राय अपने अनुयायियों के बीच प्रसारित की। इसके पीछे उनकी भावना थी कि लोगों को अंग्रेजों द्वारा उनके साथ किए जा रहे भेदभाव याद रहे।यही टोपी समय के अन्तराल में ' गांधी टोपी' के नाम से ख्याति अर्जित की।
  वैसे जब गांधीजी अफ्रीका से भारत लौटे, तो उन्होंने टोपी नहीं, पगड़ी पहन रखी थी। इसके बावजूद उनके अनुयायियों, नेताओं और सत्याग्रहियों ने इसे अपनाए। कांग्रेसियों ने इस टोपी को खुद तो धारण किया हीं,इसे गांधी से जोड़कर औरों को भी पहनने के लिए प्रोत्साहित किया। राजनीतिक व अन्य कारणों से हीं सही, गांधी टोपी की पहुंच लाखों लोगों तक हो गई, यहां तक कि वैसे लोग, जो इसे धारण नहीं करते थे, के बीच भी इसके प्रति प्रतिष्ठा बढ़ गई।
    १९१९ की एक घटना है। गांधी रामपुर कोठी खास बाघ में नवाब सैयद हामिद अली खान बहादुर से मिलने गए। वहां की परम्परा थी कि नवाब से मिलने के लिए किसीको भी सिर ढकना आवश्यक होता था। गांधी के पास न कोई कपड़ा था और न टोपी। रामपुर बाजार में टोपी खोजी गई, लेकिन गांधी के सिर पर आने वाली कोई टोपी नहीं मिली।तब,अली ब्रदर्श की मां आबादी बेगम, जिन्होंने असहयोग आंदोलन का नेतृत्व किया था, ने गांधी के लिए एक टोपी बनाई। फिर यही टोपी, ' गांधी टोपी' के नाम से लोगों में मशहूर हुई।
  १९४८ में गांधीजी की हत्या के बाद देश में 'गांधी टोपी' को भावनात्मक महत्व मिला।पं नेहरू, शास्त्री, मोरारजी सरीखे नेताओं ने इसे शिरोधार्य किया। लेकिन, कांग्रेस से अलग हुए कुछ दलों और उनके लोगों ने तथा पश्चिमी सभ्यता के रंगों में डूबे लोगों ने इसकी महत्ता को कम कर दिया।
   नेताजी सुभाष चन्द्र बोस खाकी रंग की,हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ काले रंग की टोपी पहनते थे। समाजवादी पार्टी के लोग आज भी लाल रंग की टोपी पहनते हैं।
    सारत: यह कहना सार्थक प्रतीत हो रहा है कि गांधी टोपी आज भी भारतीय सांस्कृतिक गौरव का संदेश, भारतीयता की पहचान और परस्पर एकजुटता का प्रतीक है। सम्मान का हकदार है। उपरोक्त मूल आलेख रचनाकार डॉ० परमानन्द लाभ साहित्यकार द्वारा मो० ७४८८२०४१०७ से प्रेस कार्यालय को सम्प्रेषित ।


जनक्रांति प्रधान कार्यालय से प्रकाशक/सम्पादक राजेश कुमार वर्मा द्वारा कार्यालय रिपोर्ट प्रकाशित व प्रसारित ।

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