*श्री चित्रगुप्त शोध चिंतन* अनादि, अनंत, अजन्मा, अमरणा, अवर्णनीय , सत्चितानंद घन , आनंद कंद ,न्याय ब्रम्ह है भगवान श्री चित्रगुप्त

श्री चित्रगुप्त शोध चिंतन


अनादि, अनंत, अजन्मा, अमरणा, अवर्णनीय , सत्चितानंद घन , आनंद कंद ,न्याय ब्रम्ह है भगवान श्री चित्रगुप्त



चित्रगुप्त प्राकट्योत्सव की अनंतानंत मङ्गलमय बधाई

 गंगा सप्तमी , धर्मराज दशमी , चैत्र पूर्णिमा , कार्तिक द्वितीया आदरणीय मुझे तो यह चारों ही तिथियां सही लगती है मैं एक भी तिथि के विषय में यह स्वीकारोक्ति नहीं करता कि इस दिन यह दिव्य पर्व नहीं होगा क्योंकि इन सब दिवस पर जयंतियां को मनाने अलग अलग महत्व है  सबसे पहले भगवान श्री चित्रगुप्त के बारे में जानना होगा तब तो पता चलेगा के प्रकट उत्सव किनका होता है भगवान श्री चित्रगुप्त को कोई जानता नहीं , समझता नहीं , जानना चाहता नही और उनके विषय में पुस्तके लिखे जा रहा है वैदिक वांग्मय में प्रवेश किये बिना परब्रम्ह सत्ता भगवान श्री चित्रगुप्त को जान पाना संभव नही है  ।
जयंतियां , प्राकट्योत्सव महोत्सव अवतारों, ऋषियों , देवताओ को होती है परब्रम्ह सत्ताओ की नही
आपने कभी सुना है परब्रम्ह सत्ता भगवान नारायण , सदाशिव , ब्रम्हाजी , माँ आद्य शक्ति  की कोई जयंती या प्रकटोत्सव पर्व होता है, नही क्योकि ये आदि है।
पौराणिक आख्यान अनुसार भगवान ब्रह्मा से उत्पन्न अट्ठारह मानस संतान 10 ऋषियो को मानसिक दृष्टि से भगवान ब्रह्मा ने जन्म दिया । मरीचि , अत्रि , अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु , भ्रुगू , वशिष्ठ , दक्ष , नारद,
यह 10 ऋषि हैं जिनका भगवान ब्रह्मा के दशांश से अर्थात अलग-अलग अंग से जन्म हुआ। 

 स्वयंभू मनु शतरूपा

11 एवं 12वे मानस पुत्र

चार सनकादिक ऋषि

13 से 16 वे मानस पुत्र

 सनक सनंदन सनातन सनत कुमार सनतसुजात

समस्तीपुर, बिहार ( जनक्रान्ति हिन्दी न्यूज कार्यालय 01 मई,20 ) । 17 वे मानस पुत्र भगवान रुद्र (शंकर) के आगमन के बाद भी सृष्टि का कार्य सुचारू रूप से नही हो पाया तपश्यात धर्मराज भगवान ब्रम्हा के पास गए और कहा मुझे योग्य सहायक दीजिये  जिससे यमलोक का शाशन संपूर्ण सृष्टि पर सुचारू रूप से संचालन हो भगवान ब्रम्हा ने कहा मेरी शक्तियां सभी कार्य कर रही है पर कार्य हो नही पा रहा है अब परात्पर परब्रम्ह ही संभाल सकेंगे ध्यान रहे सनातन वैदिक वांग्मय के अनुसार ब्रम्हा से ऊपर भगवान विष्णु या सदाशिव है 

और उसके पश्चात भगवान ब्रह्मा 1000 वर्ष की साधना में लीन हो गए  उसके पश्चात भगवान कायस्थ अर्थात परात्पर परब्रह्म भगवान श्री चित्रगुप्त भगवान ब्रह्मा की मानसिक सृष्टि में 18 वे मानस पुत्र के रुप में कृपा कर पधारे ब्रम्हा विष्णु और सदाशिव तीनो ही शक्तियों से युक्त होकर पधारे।  पद्मपुराण में इत्यादि कई जगह इसका वर्णन आता है इसमें  विचारणीय बात यह है कि भगवान रूद्र अर्थात शंकर और भगवान कायस्थ अर्थात चित्रगुप्त की उत्पत्ति देवताओ ओर ऋषियों के बाद हुई है और ऋषियों,देवताओ पर शासन करने के लिए हुई है या यूं कहें ऋषियों को भी दंड देने के लिए हुई है । अर्थात देवता, असुर , अवतार , ऋषि इत्यादि सब भगवान श्री चित्रगुप्त के नियंत्रण में है  अर्थात न्याय ब्रह्म यमलोक के स्वामी भगवान श्री चित्रगुप्त  के अधीन है।
परात्पर परम ब्रम्ह है.सनातन धर्म के अनुसार परात्पर परमब्रम्ह निराकार विराट शक्तिपुंज हैं जिनकी अनुभूति सिद्ध जनों को 'अनहद नाद' (कानों में निरंतर गूंजनेवाली भ्रमर की गुंजार) केरूप में होती है और वे इसी में लीन रहे आते हैं. यही शक्ति सकल सृष्टि की रचयिता और कण-कण की भाग्य विधाता या कर्म विधान की नियामक है.
एक दिव्य देव शक्ति जो चिन्तान्त: करण में चित्रित चित्रों को पढ़ती है, उसी के अनुसार उस व्यक्ति के जीवन को नियमित करती है, अच्छे-बुरे कर्मो का फल भोग प्रदान करती है, न्याय करती है। उसी दिव्य देव शक्ति का नाम चित्रगुप्त है।"
सतयुग मे देवताओं एवं दैत्यों के बडे़-बड़े विकराल युद्ध हुये हैं। इस युद्ध में देवता हार गये और अन्त में अपना राज-पाट खो दिया। इन्द्र महाराज को न जाने कितनी बार अपना सिंहासन छोड़ना पडा और धर्मराज के यहा स्वर्ग में जगह नहीं थी तथा सम्पूर्ण नरक खाली पड़ा था क्योंकि वह दैत्यों कि मनमानी करने से रोकने में असमर्थ थे, जो स्वर्ग में घुस जाते थे और धर्मराज को सिंहासन से धकेल देते थे। उस समय धर्मराज को यह आवश्यकता पड़ी की कोई उनकी सहायता करे।  वह बारी बारी से सभी देवताओं की सहायता लेने गये, परन्तु कोई भी देवता उनकी सहायता करने के लिए तैयार नहीं हुआ क्योंकि वे उन दैत्यों का मुकाबला करने में असमर्थ थे। जब धर्मराज को कोर्इ उपाय न सूझा तब ब्रह्राजी के पास गये।  देवता ब्रह्रा जी के पास सहायता के लिए जाते हैं, वे देवता की नाना प्रकार से सहायता करते हैं।
जब धर्मराज ब्रह्रा जी के पास गये और अपना सम्पूर्ण वृतान्त सुनाया तब ब्रह्राजी ने उनकी सहायता करने का आश्वासन देकर विदा किया और स्वंय सहायता करने हेतु ध्यानावस्थित हो गये।
सहायता हेतु सामर्थ्यवान ब्रह्रा अपने इष्टदेव, उस पारब्रह्र परमेश्वर, उस महान एवं सर्व शक्तिमान परमेश्वर  जिसका चित्र सदैव गुप्त रहता है, उसके ध्यान में मग्न हो गये और इसी ध्यान मग्न अवस्था में एक हजार वर्ष व्यतीत हो गये यह मानव वर्ष नही है।* *अन्त में उनके इष्ट देव उन पर प्रसन्न हुए उनको दर्शन दिये। जब ब्रह्रा जी ने भगवान चित्रगुप्त जी के दर्शन पाये तो अकस्मात, उनके मुख से निकल पड़ा

         ” चित्रगुप्त ” चित्रगुप्त का अर्थ स्पष्ट है, वह चित्र जो सदा ही गुप्त रहता हो और यह शब्द भगवान के अतिरिक्त अन्य किसी के लिए प्रयोग नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार कायस्थ का अर्थ भी स्पष्ट है ‘जो काया में स्थ है अर्थात स्थित है, वही कायस्थ है। इसीलिए कहा भी गया है ।

‘काये स्थित: स: कायस्थ’

इसको भी भगवान के अतिरिक्त अन्य किसी के लिए प्रयोग नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसका अर्थ सर्व व्यापक तथा सर्वशक्तिमान होता है।
पुराणों के आधार पर जब-जब छिपी शक्ति अवतरित होती है, तब उसका चतुर्भुजी रुप ही होता है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम जब अवतरित हुए तब कौसल्या जी को उन्होंने बालक रुप में रोदन करने के पूर्व चतुर्भुजी रुप में दर्शन दिये इसी प्रकार योगिराज भगवान कृष्ण ने कंस के कारागार के अन्दर ही वासुदेव जी के गोकुल पहुचाने के पूर्व ही देवकी जी को अपने चतुर्भुजी रुप में ही दर्शन दिये। परन्तु उनके हाथ में शंख, चक्र, गदा पदम नहीं थे।
भगवान चित्रगुप्त जी के हाथ में मसि पात्र (दवात), लेखनी (कलम), कृपाण (तलवार), तथा पुस्तक उनके प्रादुर्भाव के समय ही विधमान थे। यह इस बात का धोतक है कि ब्रह्राजी को मूक रुप से संकेत थे कि ‘हे ब्रह्रा ! तू मत घबरा तेरी सारी व्यवस्था और सम्पूर्ण समस्यायें अब हल हो जायेंगी” अर्थात मैं सम्पूर्ण लोकों का सारा विधान बना कर भाग्य नियंता बनकर तुम्हारी समस्या का हल कर दूंगा। जन्म-मरण, खान-पान किस प्रकार हो और मृत्यु के पश्चात उस प्राणी के साथ कैसा व्यवहार किया जाय, यह सम्पूर्ण विवरण लिख कर तैयार किये देता हू। मेरे लिखने के अनुसार कोर्इ भी प्राणी चाहे देवता हो अथवा दैत्य, मनुष्य हो अथवा अन्य कोर्इ इनसे परे भी हो, यदि इन नियमों में किसी प्रकार बाधा उत्पन्न करेगा अथवा इनके विरुद्ध चलेगा उसको मैं  समाप्त कर दूंगा और वह प्राणी नाश को प्राप्त होगा यह मेरा वचन है।
भगवान चित्रगुप्त जी की व्यवस्था के अनुसार ब्रह्रा जी को प्राणियों की उत्पत्ति या जन्म करने का कार्य सोंपा गया, विष्णु जी को उन प्राणियों के पालन-पोषण का कार्य सोंपा गया और शिवशंकर भोलेनाथ सदाशिव ने मृत्यु या संहार का कार्य संभाल लिया गया।
ब्रह्रा जी ने जड़ और चेतन दो प्रकार की उत्पत्ति की, जितनी सृष्टि ब्रह्राजी ने बनायी उनमें से प्रत्येक के चार-चार भाग किये अर्थात पुराणों के आधार पर हमारा संसार और उसकी नीतिया चतुर्मुखी हो गयीं इसी कारण ब्रह्रा जी को चतुर्मुखी दर्शाया गया है। वृक्ष में जड़, तना, शाखायें और पशुओं में चौपायें जिनके चार पैर हैं, पक्षियों में दो पैर और मनुष्यों में दो हाथ दो पैर हैं। जब मनुष्य संसार का कार्य आरम्भ करता है तो महींने में चार सप्ताह माने जाते हैं और ऋतुयें भी चार ही मानी जाती हैं – जाड़ा, गर्मी, बसन्त और वर्षा, दिन-रात के भी चार भाग किये गये हैं – प्रात: काल, मध्यान्ह, सांयकाल और रात्रि। हमने अपने जीवन को भी चार ही भागों में बांटा –   बाल्यावस्था, ग्रहस्थाश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और सन्यास। अपनी गति भी चार ही मानी हैं – प्रत्यक्ष के तीन और सूक्ष्म में एक, पुराणों के आधार पर हमारी प्रत्येक गति का एक-एक अलग-अलग मालिक है। तीन का वर्णन मैंने ऊपर किया है जैसे ब्रह्राजी को जन्म देवता, पालन-पोषण के लिए विष्णु जी और संहार के लिए भगवान शिव। यह हमारी तीनों प्रत्यक्ष गतियों पर प्रशासन करने के देव हैं। इनको हम भली भाति जानते भी हैं, हमने कभी सोचने की चेष्टा नहीं की कि हमारी चतुर्थ गति अर्थात मरने के पश्चात वह सुख से रहना चाहता है। स्वर्ग जाना चाहता है मोक्ष चाहता है। यदि आप उसी देवता या मालिक की पूजा न करें तो आपको यह सब बातें कैसे मिल सकती है। यह कार्य भगवान चित्रगुप्त जी स्वयं करते हैं और वही इसके मालिक हैं। पहली तीनों सांसारिक गतियां इसी के ऊपर निर्भर हैं।
आप मानते हैं कि हमारा जन्म अपने पिछले जन्म के कर्मो के ऊपर निर्भर है और इसी के आधार पर होगा। भगवान चित्रगुप्त ही हर एक जीव के चित्र में गुप्त रुप से रहकर उसके कर्मो का लेखा-जोखा करते हैं और मरने के बाद उस प्राणी से उसके पापों का जवाब तलब करते हैं, उनके लिखने के अनुसार ही हमारा जन्म तिल भर इधर-उधर नहीं हो सकता। इसलिए भगवान चित्रगुप्त जी जब ब्रह्रा को अपना आदेश देते हैं कि अमुक प्राणी का जन्म कुत्ते का होगा और अमुक प्राणी फकीर के घर पैदा होगा तथा अमुक प्राणी बैल बन कर बोझा ढोयेगा, तो ब्रह्रा जी प्राणीयों का जन्म उसी आदेशानुसार देते हैं। वह अपने कार्य में स्वतंत्र नहीं है और जब तक भगवान चित्रगुप्त जी उस प्राणी को ब्रह्रा जी के पास जन्म के लिए न भेजें उस समय तक उसका जन्म नहीं होगा।
इसी तरह विष्णु जी भी जब हम लोगों को खाने को देते हैं या पालते हैं तो भगवान चित्रगुप्त जी के आदेश की प्रतीक्षा करते हैं और जिस प्रकार भगवान चित्रगुप्त जी हमारे कर्म में लिख देते हैं उसी के अनुसार वे हमको सूखी रोटी या दूध मलार्इ अथवा और भी अनेकों प्रकार के व्यंजन दे सकते हैं और यदि हमारे कर्म में हमकों फांका ही लिखा है या भूखा ही रहना है तो विष्णु जी हम पर तरस खाने के बाद भी हमारी कोर्इ सहायता नहीं कर सकते क्योंकि वे अपने कार्य में स्वतन्त्र नहीं और विधान के अन्तर्गत अपना कार्य करते हैं तथा जिस प्रकार भगवान चित्रगुप्त हमारी जीविका निर्धारित कर देते हैं उसी आदेशानुसार श्री विष्णु जी हमारा पालन-पोषण करते हैं।
भगवान शिव चित्रगुप्त जी के आदेशानुसार संहार कार्य करते हैं। जिस तरह जिसके कर्म में मृत्यु लिखी है उसी तरह उसको प्राप्त होती है। कोर्इ रेल दुर्घटना में अपने प्राणों को गंवाता है किसी की हृदय गति रुक जाती है, कोर्इ ठोकर खाकर ही मर जाता है, कोर्इ महीनों खाट पर पड़ा-पड़ा सड़ता रहता है और लोग प्रार्थना करते हैं कि इसके प्राण जल्दि निकल जायें। भगवान शिव को यदि उस प्राणी पर तरस भी आ जाये तो उसके प्राण बिना चित्रगुप्त जी की आज्ञा के नहीं निकल सकते क्योंकि कार्य में स्वतन्त्र नहीं हैं।जब स्वयं नारायण अनुकरण, अनुसरण  करते है तो अन्य अवतार काल उनसे अलग थोड़े ही है राम ,  कृष्ण , नारायण के अंशावतार है इसलिये भगवान श्री चित्रगुप्त को छोड़ किसी को भजने  का प्रश्न ही कैसे उपस्थित है नियंता तो वही है
मानव सर्वशक्तिमान भगवान श्रीचित्रगुप्त जी को भूले हुए हैं जिनकी आज्ञा पर समस्त देवता चल रहे हैं। वह हमको सदा ही सही कार्य करने की प्रेरणा देते हैं और हमारे अन्त: करण से बोल कर संकेत करते रहते हैं। उनके आदेश पर चलना ही हमारा कर्तव्य है और उनकी पूजा सनातन धर्मावलंबीयो एवं मनुष्य मात्र के लिये सम्पूर्ण विश्व में अनिवार्य है। रविशराय गौड़
ज्योतिर्विद ,अध्यात्मचिन्तक समस्तीपुर कार्यालय से राजेश कुमार वर्मा द्वारा प्रकाशित ।

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