"आखिर हमारे देश से गरीबी हटती क्यों नहीं हैं.. ?" कवि विक्रम क्रांतिकारी

"आखिर हमारे देश से गरीबी हटती क्यों नहीं हैं.. ?"



                                         कवि विक्रम क्रांतिकारी



कोविड -19 से उपजी वैश्विक महामारी कोरोना वायरस के कारण लॉकडाउन ने देश के गरीब, मजदूर , किसान और मध्यम वर्ग पर सबसे अधिक अपना तांडव किया है दोस्तों,

राजेश कुमार वर्मा 


प्रवासी मजदूर हजारो किलोमीटर पैदल अपनी मंजिल की तरफ निकल रहे हैं जान बचाने के लिए लेकिन मंजिल से पहले ही सड़क हादसों में मारे जा रहे हैं कभी कोई ट्रक  रौंद देता है और कभी ट्रेन से कट जा रहे हैं और कुछ भूखे प्यासे मर रहे हैं ।


नई दिल्ली, भारत ( जनक्रान्ति हिन्दी न्यूज बुलेटिन कार्यालय 26 मई,2020 ) । आज कोविड -19 से उपजी वैश्विक महामारी कोरोना वायरस के कारण लॉकडाउन ने देश के गरीब, मजदूर , किसान और मध्यम वर्ग पर सबसे अधिक अपना तांडव किया है दोस्तों देश के कोने कोने से जिस प्रकार से हर रोज भयावह तस्वीरें देखने को मिल रही है l ये प्रवासी मजदूर हजारो किलोमीटर पैदल अपनी मंजिल की तरफ निकल रहे हैं जान बचाने के लिए लेकिन मंजिल से पहले ही सड़क हादसों में मारे जा रहे हैं कभी कोई ट्रक  रौंद देता है और कभी ट्रेन से कट जा रहे हैं और कुछ भूखे प्यासे मर रहे हैं दोस्तों सरकार रंगराजन कमिटी के अनुसार कहती है कि 32 रुपए प्रतिदिन कमाने वाले व्यक्ति गरीब नहीं होते l इस वैश्विक महामारी ने सरकार के इस दावे की पोल खोल दी हैं ,सरकार की नियत सभी को साफ दिख गई है आखिर इतना भेदभाव क्यों? l आप सब से मेरा सवाल है कि क्या आप खुद 32 रुपए में गुजारा कर सकते हैं? l दोस्तों इस वैश्विक महामारी मे राजनेताओं बुद्धिजीवियों और डिजाइनर पत्रकारों का सबसे पसंदीदा विषय बना हुआ है इसमें बिना किसी खर्च के नेताओं को पूरी पब्लिसिटी मिल रही है बुद्धिजीवियों को एजेंडा मिल रहा है न्यूज़ चैनलों की टीआरपी मिल जा रही है और जो गरीब मजदूर पलायन कर रहे हैं उनके हाथ कुछ नहीं आ रहा है l दोस्तों प्रवासी गरीब मजदूर सिर पर गठरी का बोझ, दोनों कंधे से होते पीठ पर लटकता बैग एवं  मुंह पर बंधी धूल से सनी रुमाल हफ्तों से बिना नहाए भूखे प्यासे चिलचिलाती धूप में पैदल चलने वाले प्रवासी मजदूरों की दशा देखकर कौन ऐसा व्यक्ति है जो द्रवित नहीं हो रहा होगा सुनी आंखों में गहराती उदासी माथे पर झांकती थकान और रूआंसे  मन की व्यथा लिए रोज सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने वाले प्रवासी मजदूरों की कहानी तमाम सरकारी दावों का पोल खोलने के लिए काफी है l पिछले दिनों चंद्रभान ने ससुराल की अंगूठी व  बर्तन ,सिलेंडर बेचकर घर की तरफ निकला मुंह से आवाज नहीं निकल पा रहा था दर्द को ठीक से बयां नहीं कर पा रहा था ऐसे थके हारे थे चंद्रभान की भूख प्यास से परेशान थे जब पानी दिया गया तो बताएं कि एक प्राइवेट कंपनी में काम करते थे कंपनी बंद हो जाने पर उन्हें काम से जवाब मिल गया इसलिए सभी सामान बेचकर पैदल ही निकल गए दोस्तों एक- एक पैसे के  लिए मोहताज चंद्रभान जैसे और भी बहुत सारे प्रवासी मजदूर हैं जिन की कहानी सुनकर आंखों में आंसू छलक आ रहे हैंl 
दोस्तों 1971 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने चुनाव प्रचार के दौरान गरीबी हटाओ का नारा दिया था. लेकिन 49 वर्षों के बाद भी भारत में गरीबी नहीं हटाई जा सकी. इस दौरान ना जाने कितनी सरकारे आई, कितने प्रधानमंत्री आए लेकिन देश से गरीबी कम नहीं हो पाई जो कि इस लॉकडाउन ने दिखा दिया और तो और इस दौरान अलग-अलग तरीकों से गरीबों को हटाने की कोशिश जरूर हुई है l दोस्तों इस लॉकडाउन के दौरान पलायन कर रहे मजदूरों के साथ भी यही हुआ और हो रहा है मजदूर मीलों पैदल चलकर एक राज्य से दुसरे राज्य भूखे प्यासे जा रहे हैं इस दौरान कभी इन्हें थकान मार डाल रही है कभी ट्रेन से कट जा रहे हैं तो कभी कोई ट्रक इन्हें रौंदकर चला जा रहा है और किसी तरह इनकी जान बच भी गई तो इन्हें भेड़ बकरियों की तरह मैदानों में जमा कर दिया जा रहा है दोस्तों जिस मजदूर ने लोहे को पिघलाकर रेल की पटरिया बिछाई उस पर चलने वाली ट्रेनों से ही यह लोग कटकर मर जा रहे हैं ये तस्वीरें बताती है कि भारत ने कभी गरीबी हटाओ के नारे को कभी असली मुद्दा माना ही नहीं, दोस्तों गरीब हर राजनैतिक पार्टी के घोषणापत्र का हिस्सा होते हैं ,गरीबों के नाम पर ना जाने कितने अभियान चलाए जाते हैं लेकिन इन सबसे होता कुछ नहीं है और गरीबी सिर्फ राजनीतिक मुनाफे का शब्द बन कर रह जाती है दोस्तों 72 वर्षों से गरीबी पर राजनीति हो रही है लेकिन गरीबी मिटी नहीं l ऐसा नहीं है कि पहली बार इंदिरा गांधी ने ही गरीबी हटाने का नारा दिया था दोस्तों गरीबी पर राजनीति का इतिहास बहुत पुराना है और आज भी इसी पर राजनीति  चल रही है l एक तरफ दोस्तों देश के 90% संसाधनों पर 10% लोगों का कब्जा है वही मात्र 10% संसाधन पर 90% लोगों का हिस्सा है इस आंकड़े को देखने के बावजूद राजनीतिक उठापटक और गरीब प्रवासी मजदूरों और किसानों की आंखों में धूल झोकते हैं यह राजनेता और फिर चले आते हैं वोट मांगने आखिर इतनी बेशर्मी लाते कहां से हैं l दोस्तों आज भी रोटी ,कपड़ा, और मकान मांग रहा है हिंदुस्तान ।


सोच कर देखो जिस अन्नदाता ने इस वैश्विक महामारी में भी दिन-रात खेतों में डटकर सभी का पेट भरने के लिए मेहनत कर रहा है उसके फसल का लागत मूल्य भी नहीं दिया जा रहा है पिछले दिनों किसानों से ₹1 प्रति किलो प्याज खरीद कर 20 से ₹25 प्रति किलो बेचा गया फिर कैसे देश का किसान गरीब प्रवासी मजदूर इस गरीबी के कुचक्र से निकलेगा जब इसके मेहनत का वाजिब मूल्य नहीं मिलेगा तो ,दोस्तों सच है कि कोरोना वायरस की वजह से पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था का स्वास्थ्य पूरी तरह बिगड़ गया है आईएमएफ ने भी आशंका जताई है कि दुनिया की अर्थव्यवस्था 1930 के बाद सबसे बड़ी आर्थिक मंदी का शिकार हो सकती है लेकिन देखना इंडिया को इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है मेरा इंडिया कहने का मतलब जिनके पास देश के संपत्ति पर 90% अधिकार है जो देश के 10% है वही जो देश के 90% आबादी है उस पर बहुत ही विकराल रूप दिख भी रहा है और आगे भी आएगा इसीलिए मैं कहता हूं इंडिया भारत और हिंदुस्तान तीनों अलग है जो भारत इंडिया की रोजमर्रा के लिए अपनी पूरी जिंदगी लगा दिया और जो हिंदुस्तान दिन-रात खेतों में लगकर सभी का पेट भरता रहा वह हमेशा वंचित रहा ,हिंदुस्तान गांव में रहता है जो कि हमारे अन्नदाता है सभी का पेट भरता है लेकिन उसकी बात कोई नहीं करता जिस खाद्य भंडारण की खाद्य मंत्री जी दंभ भरते हैं 1 साल तक के लिए गोदाम में अतिरिक्त अनाज है उस अन्नदाता के लिए एक शब्द भी नहीं बोलते आखिर क्यों.?। 
कवि विक्रम क्रांतिकारी (विक्रम चौरसिया- अंतरराष्ट्रीय चिंतक) दिल्ली विश्वविद्यालय/आईएएस अध्येता  लेखक सामाजिक आंदोलनों से जुड़े रहे हैं व वंचित तबकों के लिए आवाज उठाते रहते हैं-स्वरचित मौलिक व अप्रकाशित लेख ।समस्तीपुर कार्यालय से राजेश कुमार वर्मा द्वारा प्रकाशित । 
Published by Rajesh kumar Verma 

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