वेदों के अध्यन से 0का स्पष्ट संकेत हमारे शास्त्रो और वेदों के ज्ञान को छिपाने की साजिस किया गया यही कारण है कि 0 आविष्कारक आर्यभट्ट को माना जाने लगा :पंकज झा शास्त्री

वेदों के अध्यन से 0का स्पष्ट संकेत 

हमारे शास्त्रो और वेदों के ज्ञान को छिपाने की साजिस किया गया यही कारण है कि 0 आविष्कारक आर्यभट्ट को माना जाने लगा :पंकज झा शास्त्री

समस्तीपुर कार्यालय 

                                     ज्योतिष पंकज झा शास्त्री

दरभंगा/मधुबनी, बिहार ( जनक्रान्ति हिन्दी न्यूज बुलेटिन कार्यालय 03 जून,2020 ) ।  किसी भी तथ्य को समझने से ज्यादा लोग एक दुसरे विषय को निचे दिखाने या कमजोर करने मे लगा हुआ है ।एक कहावत है कि अधजल गगरी छलकत जाय । आजकल अध्यन कम और हवा हवाई देकर दुस्प्रचार अधिक करने लगे है ।
हमारे शास्त्रो और वेदों के ज्ञान को छिपाने की साजिस किया गया यही कारण है कि 0 आविष्कारक आर्यभट्ट को माना जाने लगा । जबकि रामायण मे रावण के दश शीर होने की गणना बतायी गयी है। महाभारत मे कड़वो के 100 भाई की गणना बतायी गयी है ।इतना ही नही सबसे प्राचीन वेद मे भी सून्य का संकेत साफ मिलता है ।और भी वेद मे कई प्रमाण साफ मिलता है । ऋग्वेद, दशम मण्डल, 90सूक्त पुरुष सूक्त, पहला मंत्र। सहस्त्रशीर्षा पुरुष: सहस्राक्ष: सहस्रपात्। स भूमि सर्वत: स्पृत्वाSत्यतिष्ठद्द्शाङ्गुलम्। । 1। । अर्थात - जो सहस्रों सिरवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरणवाले विराट पुरुष हैं वे सारे ब्रह्मांड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं। । 1। । ज्योतिष शास्त्र की पुस्तक मुहूर्त चिंतामणि में ही एक जगह नक्षत्रों में ताराओं की संख्या बताते हुए एक श्लोक है!(नक्षत्र प्रकरण, श्लोक-58) त्रित्र्यङ्गपञ्चाग्निकुवेदवह्नयः शरेषुनेत्राश्विशरेन्दुभूकृताः। वेदाग्निरुद्राश्वियमाग्निवह्नयोSब्धयः शतंद्विरदाः भतारकाः। । अन्वय - त्रि (3) + त्रय(3) + अङ्ग(6) + पञ्च(5) +अग्नि(3) + कु(1) + वेद(4) + वह्नय(3); शर(5) + ईषु(5) + नेत्र(2) + अश्वि(2) + शर(5) + इन्दु(1) + भू(1) + कृताः(4) वेद(4) + अग्नि(3) + रुद्र(11) + अश्वि(2) + यम(2) + अग्नि(3) + वह्नि(3); अब्धयः(4) + शतं(100) + द्वि(2) + द्वि(2) + रदाः(32) + भ + तारकाः। । यहाँ थोड़ी संस्कृत बता दूं भतारकाः का अर्थ है भ (नक्षत्रों) के तारे! तो यदि नक्षत्रों में तारे अश्विनी नक्षत्र से गिनें तो इतने तारे प्रत्येक नक्षत्र में होते हैं! सन् 498 ई0 में भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलवेत्ता आर्यभट्ट ने आर्यभटीय सङ्ख्यास्थाननिरूपणम् में कहा है- एकं च दश च शतं च सहस्रं तु अयुतनियुते तथा प्रयुतम्। कोट्यर्बुदं च वृन्दं स्थानात्स्थानं दशगुणं स्यात् ॥ 2 ॥ अर्थात-"एक, दश, शत, सहस्र, अयुत, नियुत, प्रयुत, कोटि, अर्बुद तथा बृन्द में प्रत्येक पिछले स्थान वाले से अगले स्थान वाला दस गुना है! तो मित्रो उक्त खण्डन से स्पष्ट होता है कि यह जो अनर्गल विवाद उछाला गया है वह मूर्खों के प्रलाप के अतिरिक्त कुछ नहीं है! इन मूर्खों के विषय मे पहले ही महाराज भर्तृहरि ने लिख दिया था कि इन्हें ब्रह्मा भी नहीं समझा सकते।

समस्तीपुर कार्यालय से राजेश कुमार वर्मा द्वारा ज्योतिष पंकज झा शास्त्री की रिपोर्ट प्रकाशित । Published by Rajesh kumar verma ! 

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