गुरु-पूर्णिमा पर विशेष: गुरु-पूजा का हेतु आज आषाढ़- पूर्णिमा की पुण्यतिथि है आज ही के दिन ऋषि वशिष्ठ के पौत्र और पराशर मुनि के पुत्र व्यासदेव का आविर्भाव इस जगती तल पर हुआ था,एतदर्थ इसको व्यास-पूर्णिमा भी कहा जाता है: डॉ० परमानन्द लाभ

गुरु-पूर्णिमा पर विशेष:

             गुरु-पूजा का हेतु

आज आषाढ़- पूर्णिमा की पुण्यतिथि है आज ही के दिन ऋषि वशिष्ठ के पौत्र और पराशर मुनि के पुत्र व्यासदेव का आविर्भाव इस जगती तल पर हुआ था,एतदर्थ इसको व्यास-पूर्णिमा भी कहा जाता है:  डॉ० परमानन्द लाभ

समस्तीपुर कार्यालय 

                                     Dr. Parmanand labh

समस्तीपुर, बिहार ( जनक्रान्ति हिन्दी न्यूज बुलेटिन कार्यालय 05 जून,2020 ) । आज आषाढ़-पूर्णिमा की पुण्यतिथि है।इसी दिन ऋषि वशिष्ठ के पौत्र और पराशर मुनि के पुत्र व्यासदेव का आविर्भाव इस जगती तल पर हुआ था,एतदर्थ इसको व्यास-पूर्णिमा भी कहा जाता है।
       व्यासदेव का यथार्थ नाम कृष्णद्वैपायन था। कृष्ण वर्ण का होने व द्वीप में अवतरण होने की वजह से इनका यह नाम पड़ा। फिर,वेद को चार खण्डों में बांटने के कारण वेदव्यास कहलाये। शास्त्रार्थ के लिए ईरान गये और विजयी होकर जगद्गुरु की उपाधि धारण की,तभी से 'व्यास-पूजा' को लोग 'गुरु-पूजा' के रूप में मनाने लगे।
         गुरु पूज्य हैं और इनकी पूजा होनी हीं चाहिए। सन्तों की मान्यता है कि एक गुरु की पूजा में समस्त देवी-देवताओं की पूजा हो जाती है।महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज की उक्ति है-
  "देवी देव समस्त पूरण ब्रह्म परम प्रभु।
  गुरु में करैं निवास कहत हैं सन्त सभू।।"

        सदगुरु की महिमा अनंत है। इनकी महिमा के बखान को वाणी की देवी सरस्वती, लेखनकर्ता गणेश,चतुर्मुख ब्रह्मा, पंचमुख शिव,षट्मुख कार्तिकेय और सहस्रमुख शेष भी नि:शेष नहीं कर सकते, इसीलिए तो कबीर साहब कहते हैं -
    "सात समद की मसि करौं,लेखनि सब बनराई।
     धरती सब कागद करौं, गुरु गुण लिखा न जाई।।"

         इनकी महिमा अपरम्पार है।वे अपने शिष्य के अनंत लोचन का उन्मेष कराकर परमात्मा का दीदार करा देते हैं।बाबा कबीर की वाणी में कहा गया है -
 "सदगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
 लोचन अनंत उघारिया, अनंत दिखावनहार।।"
        शास्त्रों में, सन्तों की वाणियों में, विद्वानों के कथन में गुरु की तुलना कहीं देवता से, कहीं परमात्मा से और कहीं उनसे भी विशेष बताया गया है। योगशिखोपनिषद् में एक स्थल पर आया है - "यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ" और दूसरी जगह गुरु को ब्रह्मा,विष्णु तथा महेश बताया गया है - "गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देव: सदाशिव: ।"इतना हीं नहीं, इसी में यह भी बताया गया कि तीनों लोकों में इनसे विशेष कोई नहीं है - " न गुरोरधिक: कश्चिन्नषु लोकेषु विद्यते।"
    कबीर ने तो स्पष्ट कहा कि गुरु गोविंद से बढ़कर हैं-
 " गुरु गोविंद दोनों खड़े,काको लागू पाए।
 बलिहारी गुरु आपने,जिन गोविंद दियो बताए।।"

    चरणदास की दृष्टि में भी गुरु और प्रभु में कोई भेद नहीं है -
 " गुरु ही शेष महेश तोहि चेतन करै।
 गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु होय खाली भरै।।"

      और कवि-कुल-कमल गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज भी गुरु और हरि को एक मान इसकी पुष्टि करते हैं-
 "श्री हरि गुरु पद कमल भजहिं मन तजि अभिमान।
 जेहि सेवत पाइय हरि सुख निधान भगवान।।"

    सहजोबाई तो यहां तक कहती है कि वह हरि को तज सकती है, गुरु को नहीं-
 " चरणदास पर तन मन वारुं।
   गुरु को न तजूं हरि को तजि डारुं।।"

     इस बिंदु पर सुन्दरदासजी और स्पष्ट कहते हैं - " गुरु की तो महिमा अधिक है गोविन्द तै।" 
    आधुनिक संत महर्षि ने 'महर्षि मेंहीं पदावली ' में लिखा है - 
 " गुरु गुण अमित-अमित को जाना।
 संक्षेपहिं सब करत बखाना।।"

   इनके कहने का तात्पर्य है कि सम्पूर्ण रूप से कोई गुरु-महिमा का बखान कर हीं नहीं सकता।
      इसी बीच यह भी सच है कि स्वयं प्रकाशमान सूर्य को भी तो श्रद्धालुजन दीपक दिखा अपनी श्रद्धा निवेदित करते हीं हैं, उसी प्रकार शिष्य अपने गुरु के प्रति अपनी श्रद्धा अर्पित कर संतुष्ट होते हैं।दादू दयाल जी महाराज कहते हैं कि गुरु के
क्या नहीं कर सकते? वे तो पतित-पावन हैं -
 " सतगुर पशु मानस करैं, मानुस थैं सिध सोय।
  दादू सिध थै देवता,देव निरंजन होय।।"

     इन सद्शास्त्रों और सद्पुरुषों की वाणियों पर विचार करने से यह प्रतीत होता है कि सन्त-सद्गुरु के चरण-शरण में जाये बिना प्राणी का कल्याण नहीं है। महर्षि मेंहीं ने डंके की चोट पर कहा-
 "सन्तमता बिनु गति नहीं,सुनो सकल दे कान।
 जौं चाहो उद्धार को,बनो सन्त-सन्तान।।"

        लेकिन,इस सन्दर्भ में मेरा कहना है कि जैसे-तैसे को गुरु बनाने से काम नहीं चलेगा, क्योंकि एक प्रसिद्ध कहावत भी है - 

" गुरु कीजिए जान, पानी पीजिए छान।"
     यानी, गुरु पहचान कर करना चाहिए। पहचान के लिए कबीर बाबा का थर्मामीटर है -
 " गुरु नाम है ज्ञान का, शिष्य सीख लै सोय।
 ज्ञान मर्याद जाने बिना, गुरु अरु शिष्य न कोई।।"

        कनफूका गुरु से काम चलने वाला नहीं है। 'गुरु' शब्द का शाब्दिक अर्थ ही होता है - 'अंधकार-निवारक' । गोस्वामीजी का बैरोमीटर बताता है कि जो अज्ञान पद से ऊपर उठकर ज्ञान का कथन करे,तमहीन होकर प्रकाश का विवेचन करे और तीनों गुणों से पृथक हो अगुण के गुणगान में समर्थ हो,वही गुरु कहलाने के लायक है । यथा-
 " ज्ञान कहे अज्ञान बिनु,तम बिनु कहे प्रकाश।
 निर्गुण कहे जो सगुण बिनु,सो गुरु तुलसीदास।।"

       गुरु अपने शिष्य में अपनी साधना-शक्ति का संचार कर उसे भी गुरु के योग्य बना देता है। इसीलिए पलटू साहब ने कहा - "बड़ा होय तेहि पूजिए,सन्तन किया विचार।" मंतव्य स्पष्ट है कि वेश-विशेष से नहीं,गुण-विशेष से पूजा होनी चाहिए।
    सन्त हीं सदगुरु होते हैं।सभी सन्त एक समान हैं।सन्त पूज्य हैं, गुरु पूज्य हैं।हम राम-कृष्ण की सन्तान हैं, कबीर-नानक की सन्तान हैं, सबों ने हमें यही सिखाया है।इनकी शरण में जाकर हम अपना कल्याण करें, जीवन सार्थक करें।
      गुरु-पूजा का यही हेतु है।पूरे गुरु की पूजा हेतु यह गुरु-पूर्णिमा पर्व मनाया जाता है।

समस्तीपुर कार्यालय से राजेश कुमार वर्मा द्वारा डॉ० परमानंद लाभ द्वारा वाट्सएप माध्यम से संप्रेषित रिपोर्ट  प्रकाशित । Published by Rajesh kumar verma

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