✍️गांधी जयंती पर विशेष... गांधीजी का अनुत्तरित सवाल ---------------------------- ✍️डॉ० परमानंद लाभ

  👉✍️गांधी जयंती पर विशेष...

                    गांधीजी का अनुत्तरित सवाल 

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                                  डॉ० परमानन्द लाभ

                        समस्तीपुर,बिहार।

👉✍️🤝गांधी जी की जयंंती विशेष.....

                  गांधीजी का अनुत्तरित सवाल

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समस्तीपुर, बिहार ( जनक्रान्ति हिन्दी न्यूज बुलेटिन कार्यालय 01 अक्टूबर , 2020 ) ।

 👉✍️देश। संविधान। लोकतंत्र। किसी भी लोकतांत्रिक देश में इनके बीच बड़ा गहरा संबंध होता है और ये स्वस्थ,स्वच्छ,सबल और पारदर्शी होंगे,तभी वहां के लोग अमन-चैन से रह सकेंगे तथा सुख का आनंद ले सकेंगे। विधायिका , कार्यपालिका , न्यायपालिका और चौथा स्तंभ मानी जाने वाली पत्रकारिता (प्रेस, मीडिया) जैसी संस्थाएं इन्हीं की रक्षा,मजबूती के निमित्त स्थापित की गई हैं।

        उपर्युक्त चारो संस्थाओं में आत्मिक संबंधों की अन्योनाश्रय अवधारणा के आधार पर इन्हें भरपूर अधिकार व शक्ति से लैस किया गया है और इनसे अपेक्षित दायित्व निर्वहन की अपेक्षा की गई है। परन्तु किसी भी लोकतांत्रिक देश में, विशेषकर भारत जैसे देश में सबके ऊपर जनता को बैठाया गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि जनता की सेवा करना हीं इन संस्थाओं का एकमात्र मूल धेय है।इसी भाव को केन्द्र में रखकर 'लोकतंत्र' की परिभाषा किसीने गढ़ी - लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा बनाई गई सरकार है। यहां सरकार का मतलब है व्यवस्था से।

        जनता। लोकतंत्र में जनता सर्वशक्तिशालिनी है।वही सबकुछ है। और अगर यह कहा जाय कि लोकतंत्र की सफलता जनता पर निर्भर है,तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

     दुनिया में सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश भारत की जनता आजादी के इन लम्बे अन्तरालों में स्वयं को समझने-बूझने की शक्ति पैदा नहीं कर सकी। खुद को नहीं जान पायी। यह दुर्भाग्य नहीं तो क्या है..? जो जनता खुद को नहीं जान और पहचान पायी, वह को कैसे जान पाती,उसकी रक्षा के प्रति अपने दायित्वों का निर्वहन कर पाती, लोकतंत्र को मजबूत कर पाती।

      'वर भेल बुड़िबक दहेज के लेत'। आजादी हासिल करने के तुरंत बाद देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्र को अपने सम्बोधन में कहा था -" We end today an era of misfortune and India discovers herself again." तब भारत की जनता के मन में आशा जगी थी, उसे विश्वास हो चला था कि उसके दुर्दिन समाप्त हुए।अब वह अपनी खुशहाली के लिए काम करेगी। देश खुद को पहचानेगा और अपना भविष्य स्वयं बनायेगा।

      संविधान-सभा के अध्यक्ष देशरत्न डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने भी अवसर पर कुछ ऐसा ही कहा था - " To all we give the assurance that it will be our endeavour to end poverty and sqalor and its companions , hunger and disease, to abolish destructions and exploitation and to ensure decent conditions of living." अर्थात् देश की सरकार देश से दरिद्रता,रोग और गंदगी को मिटायेगी, भेदभाव और शोषण के कलंक से आम जनता को त्राण दिलायेगी तथा उसके रहन-सहन की समुचित व्यवस्था के लिए सदैव तत्पर रहेगी।

      लेकिन, हुआ क्या ? आजादी के इन लगभग तेहत्तर सालों में क्या भारत स्वयं को जान सका है और भारत की जनता अपने आप को पहचान सकी है? क्या हमारे कदम एक समतामूलक समाज के निर्माण की ओर बढ़ सके हैं? नहीं।

     राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहा करते थे कि जवाहर चाहता है कि अंग्रेज चले जाएं, अंग्रेजियत बनी रहे और वे अंग्रेजियत को भगाने के पक्षधर थे, अंग्रेजी को नहीं। दोनों की मानसिकता का जो फर्क है, जनता आज तक नहीं समझ पायी।

     दुष्चक्रियों के प्रपंच के जाल से खुद को बचाने की बजाए दल-दल में उत्तरोत्तर फंसती चली गई, यह क्रम बदस्तूर जारी है।

    ' तंत्र' पर 'लोक' की बढ़त लोकतंत्र का मूलमंत्र है, पर यह कहते हुए अफशोश हो रहा है और दावे के साथ कहा जा सकता है कि आज 'तंत्र' ने 'लोक' पर कब्जा जमा लिया है। परिणाम सामने है। राष्ट्र ने बहुत कुछ तो पाया है, लेकिन सबकुछ खोने के कगार पर पहुंच गया है।

      फूल बेचने वाले को क्या,भूखे पेट फूल उगाने वाला माली असमय जमींदोज होते जा रहा है। देश आखिर इस सत्यता से कब परिचित होगा कि फ़ूल बेचने वाले को फूल के प्रति जो मोह होता है, फूल बेचने या खरीदने वाले को कभी नहीं हो सकता? किसी कवि की कविता का सारांश है - एक आदमी रोटी बेलता है,दूसरा खाता है और तीसरा न बेलता है,न खाता है, वह रोटी से खेलता है। वह खेलने वाला कौन है? संसद सवाल पर मौन है। उसकी इस मौनता को उसके जबड़े में हाथ देकर तुड़वाने का काम आखिर जनता हीं तो करेगी।

      उफ्। अपने ही कारण अपने ही घर में तिकड़मी व्यवस्था की शिकार बनी घर की मालकिन (जनता) आठ-आठ आंसू बहाते रहने पर मजबूर है। अपनी अपार शक्ति से अपरिचित भोली बनी जनता अपनी थोड़ी बची अहमियत को बचाने की भूमिका निभाने में भी अक्षम साबित हो रही है। उसकी इस दु:स्थति के लिए तंत्र तो पूरी तरह दोषी है हीं उससे कहीं अधिक दोषी वह खुद है।

     "आजाद भारत की गुलाम जनता" के आवरण से आवरणित होने के कतिपय महत्वपूर्ण कारणों में एक बड़ा कारण उसकी अशिक्षा है। उसके अशिक्षित रहने का सवाल तो सरल है, उत्तर बड़ा जटिल है। भारतीय के अशिक्षित रहने का प्रश्न निरंतर उठता रहा है। बहुत पहले हम नहीं जाना चाहेंगे, लेकिन परतंत्र भारत भी हमारे श्रद्धास्पदों ने उठाने का किया और आजादी के पश्चात जिन्होंने इस प्रश्न को उठाया,या तो उनकी वाणी को स्थापित व्यवस्था ने दबा दिया अथवा उन्हें उनका दंश झेलना पड़ा। सवाल का जवाब तो नहीं मिला, लेकिन एक अहसास मिला - " जिनके लिए मरिये उनकी आंखों में आंसू नहीं।" 

    भारत की जनता को यह समझना और समझाना बड़ा कठिन है कि भारत में जन्म लेकर अपने पांव पर डेगाडेगी देने लगे बच्चे को अशिक्षित बनाये रखना विकृत व्यवस्था के दुष्परिणाम हैं, उनपर अशिक्षा बलपूर्वक लादी गई है। यह समाजार्थिक व्यवस्था का अभिशाप है, जो आमजन को भोगना पड़ रहा है। केवल शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं, अपितु जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रणाली के परिणाम हैं कि चन्द लोगों को खास बनाये रखने के लिए,स्वस्थ,सबल और शिक्षित बनाये रखने के लिए आमजन को,उनकी संतानों को रोगी,निर्बल और अशिक्षित रहकर जीने पर मजबूर कर दिया जाता है, ताकि वह स्थापित व्यवस्था के विरुद्ध आवाज़ न उठा सके।तनकर खड़ी होने की बजाय मूक बनी रहे।

     जनता के ' कोमा' में रहने के कारण ही तो आततायी तंत्र के गिरोह और उनके गिरोह के लोग दिखावे के लिए चन्द खेमे में बंटे हैं और आपस में एक-दूसरे पर अप्रभावी प्रहार का नाटक कर आमजनता को दिग्भ्रमित कर सत्ता में बने रहने की योजना पर बखूबी काम कर रहे हैं।जनता सदैव पीड़ा से पीड़ित हो कराह रही है और इन्हीं चालाक तिकड़मी तंत्र गिरोह के लोग उनके हाथों में चमकते प्लास्टिक में मेढ़े हुए लालीपाप थमा कर,ठगकर सत्ता की स्वर्गिक नगरी में चले जाते हैं।

     कब भारत की जनता को इस बात का ज्ञान होगा कि वह सत्ता से कह पाएगी कि तुम घपला मत करो..? वह समझ पाएगी कि प्राचीन भारतीय परम्परा को, भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को निर्मल एवं पारदर्शी बनाये रखने की प्रतिबद्धता उसकी हीं है। उसे चाहिए कि किसी भी स्थिति में इन सत्तालोलुपों को समाज में जात-पात, सम्प्रदाय,भाषा, क्षेत्र आदि विकृतियों का विष घोलने न दे। वह जाने कि उसके मौन रहने से समाज में, राष्ट्र में ज्ञान-भ्रष्टता पनपती है,फैलती है; मानसिक विकलांगता उपजती है,जो शारीरिक विकलांगता से कहीं अधिक घातक है। इनकी परिणति सर्वनाश है।यदि व्यवस्था ऐसी ही रही तो वह दिन दूर नहीं जब रुढ़िवादिता , कठमुल्लापन और मदान्धता देश की अखंडता पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दे।

       आमजनता के ऊहापोह में रहने का ही यह परिणाम है कि देश में कुछ पढ़े-लिखे देशभक्त जब व्यवस्था-परिवर्तन की आवाज उठाते हैं, भोंपू से 'शांति' 'शांति' की आवाजें प्रभावी हो प्रसरित होने लगती हैं कि मूल प्रश्न का स्वर नक्कारखाने में तूती की आवाज सिद्ध हो सदा-सदा के लिए धरा पर सो जाती हैं।जो भोंपू की आवाज में अपनी आवाज मिलाते हैं, थिरकते हैं; वे सत्ता के द्वारा पुरस्कृत होते हैं और जो अपनी आवाज की सार्थकता की सिद्धि में लग जाते हैं, उन्हें आतंकवादी, अतिवादी,उग्रवादी, चरमपंथी, देशद्रोही, अलगाववादी आदि कहकर मुकदमे में फंसा जेल की सलाखों में डाल दिया जाता है, कभी-कभी तो पुलिस एनकाउंटर में साफ़ कर दिया जाता है। यह है स्वाधीन भारत की स्थापित व्यवस्था।

        हमारे दिमाग में व्यवस्था द्वारा विष घोल दिये जाने का ही परिणाम है कि 'व्यवस्था' का अर्थ 'सरकार' से लगाते हैं। व्यवस्था पर जब भी सवाल उठाए जाते हैं, तो सरकार अथवा सत्ता पर काबिज लोग, उनके दल- संगठन के लोग, उनसे उपकृत हुए या उपकृत होने की प्रत्याशा में लगे लोग एक साथ चिल्ला उठते हैं। सवालकर्ता पर आक्रामक हो जाते हैं। इनके बाद भी जब अपने को घिरे पाते हैं, तो बड़ी चालाकी से तंत्र के दूसरे खेमे पर तोहमत लगाने में सक्रिय हो जाते हैं कि इसके लिए वे जिम्मेवार है। 'तू-तू ' 'मैं-मैं' में के इनके खेल में मुद्दा गौण। दोषी कौन..? असल दोषी जात-पात, सम्प्रदाय, दलों में.. विभक्त जनता हीं तो है।काश! जनता समझदार और जगी होती।इन सत्ता के लोलुपों की केमिस्ट्री को यह समझती होती।

       लोकतंत्र का एक पवित्र पर्व है चुनाव। संसद का हो या विधानमंडल का या फिर कोई और। देश में होते हीं रहते हैं चुनाव।अभी बिहार विधानसभा का आमचुनाव के साथ कई उपचुनाव, विधान परिषद के चुनाव सर पर हैं। चुनाव को लोकतंत्र की सांस कहा जा सकता है। सांसे संक्रमित होने से तभी बचेगी,जब हवा स्वच्छ होगी, प्रदूषणमुक्त होगी। हो क्या रहा है? हवा हीं संक्रमित है तो लोकतंत्र का भेंटीलेटर पर चढ़ना स्वाभाविक है।

      काश! बिहार की जनता को अहसास होता कि उसकी भी कोई अहमियत है। छोटे- बड़े लोकतंत्र के दुश्मनों में से ही किसी को लोकतंत्र के रखवाले के रूप में चुनने की उनकी विवशता है।

      बिहार की सत्ता पर काबिज़ होकर सत्ता-सुख भोगने और जनता पर शासन करने को आतुर दो प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियां - भाजपा और कांग्रेस क्या कर रही हैं? दोनों अलग-अलग गठबंधन बना रही हैं।ये गठबंधन प्रदेश अथवा जनता के किसी मुद्दे पर नहीं बन रहे,सत्ता के लिए बन रहे हैं। इन गठबंधनों के अगुए जब नमूने पेश कर रहे हैं, तो लाजिमी है कि अन्य छोटे दल इनका अनुशरण तो करेंगे हीं।

       इन गठबंधन के दलों में एका है तो सिर्फ़ एक बात पर सरकार बनानी है। और सभी मुद्दें,चाहे झंडे का हो, घोषणा पत्र का हो, चुनाव चिन्ह का हो या अन्य हों, अलग हैं।खबर मिलती है कि कभी-कभार तो इनके बीच जूत्तम-जूत्ती भी हो जाती है। अब, सोचिए कि यह तो तय है कि इन्हीं बेशर्मों में से कोई गद्दी संभालेंगे।

      भैया ध्येय तो इनके एक है - सत्ता। मंशे? भिन्न-भिन्न। इनकी नीति स्पष्ट अपराधियों की है - धन लाओ लूटकर,बांट खाओ आपस में ईमानदारी से। ऐसा हुआ है क्या? रावण कुबेर से लूटकर लंका नगरी बसाया था, उसका अहंकार और उसकी भोग-लिप्सा ने सबको ख़ाक कर दिया। देश-प्रदेश के ये रहनुमा जनता को कैसा उपहार दे सकेंगे? चुनाव की पवित्रता तो चुनाव से पहले अपने आरंभिक काल में ही तार-तार हो रही है। धनविहीन,बाहुबलहीन कोई देशभक्त क्या इस दौर में लोकतंत्र का मंदिर कहे जाने वाले संसद-विधानमंडल में पहुंच सकता है? कदापि नहीं।

      इसतरह तिकड़म और चालबाजी के आधार पर सम्पन्न चुनाव से चुने प्रतिनिधियों से देश और लोकतंत्र कभी मजबूत नहीं होंगे, कमजोर और खोखले होंगे। मालिक मतदाता बन्धुओं! 

    संसद-विधानमंडल में पहुंचने वाले ये कुबेर तो पद और गोपनीयता की शपथ लेकर मलाई उड़ाएंगे। और आप?

       जो जीतेंगे,जश्न मनाएंगे; जो थोड़ा पीछे रह गए, पीड़ा आत्मसात कर आगे की तैयारी करेंगे। इनमें से हारा कोई नहीं।हारा तो सदा की भांति देश-प्रदेश, हारी जनता। यह स्थापित व्यवस्था का स्वरुप है। खास लोगों का खेल है जनतंत्र। आम भोगने के लिए है,बस।

    विश्वास है मेरा यह आलेख आम आदमी के अन्त: को झकझोरेगा,जगाएगा।

  मकसद नहीं मेरा कोई हंगामा खड़ा करना।

 चाहता हूं कि सूरत बदलनी चाहिए।।

      आम जनता का जायज सवाल होगा कि समस्याएं तो हैं, आखिर इसका हल क्या होगा..?

      आमजनता को "नुस्खा " चाहिए, " जुमला" नहीं। पीड़ित को पीड़ा से निजात के लिए नुस्खा चाहिए और ठगों-प्रपंचियों को चाहिए जुमला।

     विकृत व्यवस्था के पंक में देश-प्रदेश आकंठ डूब चुका है, निकलने के लिए एक धनात्मक संकल्प की जरूरत है। सारी दकियानूसी भावनाओं,यथा- जात-पात, वर्ग- सम्प्रदाय आदि को तिलांजलि देकर,क्षणिक लोभ को हटाकर, राष्ट्रवाद को सामने खड़ा करना होगा।

    लोकतंत्र में राजनीतिक दलों की अहमियता को नकारा नहीं जा सकता है। ये अप्रासांगिक कभी नहीं हो सकते। लेकिन आदर आजादी प्राप्ति के समय वाले दल को मिलना चाहिए, आधुनिक सत्ता के खिलाड़ियाें के संगठन नहीं। केवल दल के नाम पर आप दल-दल में और फंस जाएंगे। वोट करिये, समर्थन कीजिए, सहयोग कीजिए तो वैसे व्यक्तित्व का, जो दल के हों अथवा बाहर के हों, जिनके लिए आदर्श बड़ा हो, जो कल्याणकारी आदर्श के पालक हों तथा राष्ट्रकल्याण के समक्ष स्वकल्याण को त्यागने वाले हों।

     आज देश में प्राय: ऐसे राजनीतिक दल हैं, जिनके शीर्ष पर, जिनके इर्द-गिर्द ऐसे लोग हीं हैं, जिन्होंने येन-केन- प्रकारेण सम्पत्तियों का अम्बार खड़ा कर लिया है, अपने साथ अपने बेटे-बेटियों,स्वजनों को बलवान बना लिया है, जनसेवा के नाम पर जनता को बेवकूफ बना रहा है। ऐसे लोगों की अवहेलना होनी चाहिए। फिर, आपके जो बीच के आर्थिक व बाहुबल के मायने में सामान्य हैं और राष्ट्रीय चरित्र के धारक हैं, देश और संविधान जिनके प्राण हैं, उन्हें खुलकर गले लगायें।

     आज स्थति इतनी भयावह है कि अच्छे लोगों की,चाहे वे दल में हों या बिना दल के, संख्या न्यून है,वे स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं।हासिये पर हैं। ऐसे लोगों को ढूंढ कर मुख्यधारा में लाना होगा।

   लोकतंत्र ( लक्ष्मण) का प्राण संकट में है, उसे बचाने के लिए जनता (राम) को स्वयं में दृष्टि (जागृति) जगाकर हनुमान ( राष्ट्रीय चरित्र वाला व्यक्ति) की पहचान कर राष्ट्रीय गुरु सुषेण ( गांधी, सुभाष, राजेन्द्र, जयप्रकाश आदि) की बतायी जड़ियां लानी होगी। कहने का तात्पर्य है कि आम और खास की बात छोड़ कर, जिनमें प्रतिनिधि बनने का गुण हो, उन्हें प्रतिनिधि चुनें। कौन जीतेगा, कौन हारेगा- का सवाल अप्रांसगिक है और आपकी अहमियत को कम करने वाला है।

     लोगों की सिद्ध वाणी है - समय का चुका मनुष्य और पेड़ का चुका बंदर किसी काम का नहीं होता।आप देश के लिए जनता-जनार्दन के रूप में अपने विराट् रुप-सामर्थ्य का प्रतिष्ठापन, प्रदर्शन करें। कौन पसंद करेगा कि जिस आल-औलाद को वह प्राणपन से प्यार करता है, वह व्यवस्था के दंश को यूं हीं भोगता रहे? कदापि नहीं।

     आमजनता जगेगी। व्यवस्था शुद्ध होगी।गुलामी के धुंध से देश निकलेगा।

    भारत की आजादी के समय यहां एक सूई बनाने का कारखाना नहीं था। आज भारत विश्व में अपना स्थान रखता है। विकास तो निश्चित रूप से हुआ है, परंतु स्थापित व्यवस्था ने उसी अनुपात में एक चिंताजनक संस्कृति को भी पैदा किया है, जिसके लिए हर आज चिंतित है।

    भारत में स्वराज तो आया,सुराज नहीं आया। अमीर -अमीर बनते गए, गरीब-गरीब।नीति और कानून-नियम तो घनेरो बने, लेकिन उन्हीं में अनीति भी घुसती गई। नीति लागू करने वाले के नियत हीं संशय के घेरे में आ गया।सत्ता में आने से पहले सभी राजनीतिक दलों ने जनता को सब्जबाग दिखाए और सत्ता में आने पर कुछ भूल गए और कुछ पिछली सरकार पर तोहमत दे अपने दायित्वों से पल्ला झाड़ लिए। जनता ठगी की ठगी रह गई।

    एक तरफ भ्रष्टाचार, अनाचार, अत्याचार,अपराध का ग्राफ बढ़ रहा है, दूसरी ओर समानांतर पटरी पर कानून चल रहा है।

    " जन" से " तंत्र" कहता है- "जगे रहो " और "चोर" से कहता है- " सुबह होते माल पहुंचा देना"। इसीलिए आवश्यकता है राष्ट्रीय चरित्र के धारक को संसद-विधानमंडल में भेजना।

       सवाल किसी दल या नेता के सत्ता में रहने देने या बदलने का, मुद्दा है व्यवस्था-परिवर्तन का, जिससे आम आदमी के जीवन में गुणवत्ता लाने और उसके स्तर को ऊंचाई प्रदान करने का।

    नैतिकता को जनता की अन्तर्जात विवेकशीलता के सन्दर्भ में समझा जाना चाहिए। आज राजनीतिक दलों में, उनके आकाओं में नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं रह गया है। अतः मेरी मान्यता है कि सभी राजनीतिक, सामाजिक व बौद्धिक प्रयासों का उद्देश्य आम जनता को अपनी अन्तर्जात विवेकशीलता के प्रति अधिकाधिक सचेत रहना होना चाहिए।

    गांधीजी, नेताजी, लाजपत राय, भगतसिंह, सरदार पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, शास्त्री जी, जयप्रकाश,बिनोवा आदि हमारे राष्ट्र गुरु हैं, आदर्श हैं।

    आज हमारे नेताओं के आदर्श कौन हैं...? चुनाव में करोड़ों की राशि खर्च कर अरब उपार्जित करने के मंशा से संसद-विधानमंडल पहुंच जाते हैं। करते हैं अपराध- नियंत्रण की बात और टिकट देते हैं अपराधी को। शिक्षकों को सम्मान देने की बात करते हैं और वित्तरहित शिक्षा नीति के जाल में फंसाकर उन्हें भूखे-प्यासे मारने में लगे हैं।

     राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या ३० जनवरी १९४८ को हुई थी।ठीक चार दिन पहले २६ जनवरी १९४८ को उन्होंने डील-डौल से मनाये जा रहे एक समारोह में हजारों की भीड़ को संबोधित करते हुए कहा था कि यह आयोजन किसके लिए ? इसका उद्देश्य आखिर क्या है..? आमजनों को इसका क्या फायदा है ..? 

      गांधीजी का यह सवाल गहराता चला गया, लेकिन आज तक अनुत्तरित ही रह गया। आम जनता से मेरा अपील है कि गांधी के उक्त सवालों को गहराई से ले, इनके हल में भारत की समस्त समस्याओं का समाधान है। उत्तर आपमें निहित है। भारत की आत्मा आपमें बसती है। भारत आप हैं। सुनिए आत्मा की आवाज और तदनुरूप उठाइए कदम। स्थापित त्रुटिपूर्ण व्यवस्था जितनी ही देर है, जुर्म है। नागनाथ और सर्पनाथ के दंश से देश-प्रदेश को बचा लीजिए,ताकि आपकी अगली पीढ़ी आप पर श्रद्धा के सुमन को अर्पित करे।

    हमारे आप्त-पुरुषों का मंगल वचन -

   सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: ।

  सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग्भवेत।।

     अर्थात् सब सुखी हों,सब निरोग हों।सब कल्याण को प्राप्त हों, कोई भी दु:खभागी न हों।।

      - सच होगा। भारत का सिर ऊंचा उठ जायेगा। लोकतंत्र आततायियों के गिरफ्त से निकल कर जीवंत हो उठेगा। करोड़ों-करोड़ो भारतवासियों को को सुकून होगा कि हम भारतवासी हैं।

समस्तीपुर कार्यालय रिपोर्ट प्रकाशक/सम्पादक राजेश कुमार वर्मा द्वारा प्रकाशित । Published by Jankranti.....

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