गुरू पुर्णिमा विशेष: गुरुपूर्णिमा श्रद्धा के विकास का त्यौहार है..???

 गुरू पुर्णिमा विशेष: 

गुरुपूर्णिमा श्रद्धा के विकास का त्यौहार है..??? 

जनक्रांति कार्यालय से डॉ०केशव आचार्य गोस्वामी की रिपोर्ट 

अध्यात्म डेस्क/मथुरा उत्तरप्रदेश ( जनक्रांति हिन्दी न्यूज बुलेटिन कार्यालय 23/24 जुलाई,2021 ) ।  श्रद्धा का आरोपण करने के लिए ही यह गुरुपूर्णिमा का त्यौहार है। श्रद्धा से हमारे व्यक्तित्व का सही मायने में उदय होता है। मैं अन्धश्रद्धा की बात नहीं करता। उसने तो देश को नष्ट कर दिया। श्रद्धा अर्थात् आदर्शों के प्रति निष्ठा। जितने भी ऋषि, सन्त हुए हैं, उनमें श्रेष्ठता के प्रति अटूट निष्ठा देखी जा सकती है। जो कुछ भी आप हमारे अन्दर देखते हैं, श्रद्धा का ही चमत्कार है। आज से ५५ वर्ष पूर्व हमारे गुरु की सत्ता हमारे पूजाकक्ष में आई। हमने सिर झुकाया व कहा कि आप हुक्म दीजिए, हम पालन करेंगे। अनुशासन व श्रद्धा-गुरुपूर्णिमा इन दोनों का त्यौहार है। अनुशासन आदर्शों के प्रति। यह कहना कि जो आप कहेंगे वही करेंगे। श्रद्धा अर्थात् प्रत्यक्ष नुकसान दीखते हुए भी आस्था, विश्वास, आदर्शों को न खोना। श्रद्धा से ही सिद्धि आती है। हमें अपने आप पर घमण्ड नहीं है, पर विनम्रतापूर्वक कहते हैं कि वह देवशक्तियों के प्रति हमारी गहन श्रद्धा का ही चमत्कार है, जिसके बलबूते हमने किसी को खाली हाथ नहीं जाने दिया। गायत्री माता श्रद्धा में से निकलीं। श्रद्धा में मुसीबतें झेलनी पड़ती हैं व सिद्धान्तों का संरक्षण करना पड़ता है। हमारे गुरु ने कहा संयम करो, कई दिक्कतें आएँगी पर उनका सामना करो। हमने चौबीस वर्ष तक तप किया। जायके को मारा। हम जौ की रोटी खाते। हमारी माँ बड़ी दुःखी होती। हमारी तपस्या की अवधि में उन्होंने भी हमारी वजह से कभी मिठाई का टुकड़ा तक न चखा। हमारे गायत्री मन्त्र में चमत्कार इसी तप से आया।

आप चाहते हैं कि आपको कुछ मिले तो वजन उठाइए। हम आपको मुफ्त देना नहीं चाहते, क्योंकि इससे आपका अहित होगा। वह हम चाहते नहीं। गुरु-शिष्य की परीक्षा एक ही है कि अनुशासन मानते हैं हम आपके शिष्य, ऐसा कहें व मानें। समर्थ ने अपने शिष्य की परीक्षा ली थी व सिंहनी का दूध लाने को कहा था, अपनी आँख की तकलीफ का बहाना करके। सिंहनी कहाँ थी? वह तो हिप्नोटिज्म से एक सिंहनी खड़ी कर दी थी। शिवाजी का संकल्प दृढ़ था। वे ले आए सिंहनी का दूध व अक्षय तलवार का उपहार गुरु से पा सके। राजा दिलीप की गाय को जब मायावी सिंह ने पकड़ लिया तो उन्होंने स्वयं को शक्ति-दैवी अनुदान मिलते हैं। यह आस्थाओं का इम्तिहान है, जो हर गुरु ने अपने शिष्य का लिया है।

श्रद्धा अर्थात् सिद्धान्तों का, भावनाओं का आरोपण। कहा गया है—‘भावो हि विद्यते देवा तस्मात् भावो हि कारणम्’ भावना का आरोपण करते ही भगवान् प्रकट हो जाते हैं। भगवान् अर्थात् सिद्धि हर आशीर्वाद, सिद्धि, का आधार, फीस एक ही है—श्रद्धा। उसे विकसित करने के लिए अभ्यास हेतु गुरुपूर्णिमा पर्व। गुरुतत्त्व के प्रति श्रद्धा का अभ्यास आज के दिन किया जाता है। गुरु अन्तरात्मा की उस आवाज का नाम है, जो भगवान् की गवर्नर है, हमारी सत्ता उसी को समर्पित है। वही हमारी सद्गुरु है। गुरु को ब्रह्मा कहा गया है अर्थात् हमारा सुपर कांशसनेस हमारा अतिमानस ही हमारा गुरु है। अच्छा काम करते ही यह हमें शाबाशी देता है। गलत काम करते ही धिक्कारता है। गुरु ही ब्रह्मा है, विष्णु है, महेश है। गुरु अर्थात् भगवान् का प्रतिनिधि। गुरु को जाग्रत-जीवन्त करने के लिए एक खिलौना बनाकर श्रद्धा विकसित करें। आप हमें मानते हैं तो हमारा चित्र देखते ही श्रेष्ठतम पर विश्वास करने का अभ्यास करें। यह एक व्यायाम है, रिहर्सल हैं। प्रतीक की आवश्यकता इसी कारण पड़ती है।

हमारी अटूट निष्ठा-श्रद्धा की प्रतिक्रिया लौटकर हमारे पास ही आ जाती है। एक शिष्य गुरु के चरणों की धोवन को श्रद्धापूर्वक दुःखी, कष्ट-पीड़ितों को देता था। सब ठीक हो जाते थे। पर जब गुरु ने उसी धोवन का चमत्कार जानकर अपने पैरों को जल से धोकर वह जल औरों को दिया तो कुछ भी न हुआ। दोनों जल एक ही हैं, पर एक में श्रद्धा का चमत्कार है। उसी कारण वह अमृत बन गया, जबकि दूसरा मात्र धोवन का जल रह गया है। श्रद्धा विकसित करके कीजिए। साधनाएँ मात्र क्रिया हैं यदि उनमें श्रद्धा का समन्वय नहीं है। आदमी की जो भी कुछ आध्यात्मिक उपलब्धियाँ हैं, वे श्रद्धा पर टिकी हैं। आपकी अपने प्रति यदि श्रेष्ठ मान्यता है, आपकी श्रद्धा वैसी है तो असल में वही हैं आप। यदि इससे उल्टा है तो वैसे ही बन जाएँगे आप। गुरुपूर्णिमा श्रद्धा के विकास का त्यौहार है। हमारे गुरु ने अनुशासन की कसौटी पर कसकर हमें परखा है तब दिया है। हमारे जीवन की हर उपलब्धि उसी अनुशासन की देन है। वेदों के अनुवाद से लेकर ब्रह्मवर्चस् के निर्माण तथा चार हजार शक्तिपीठों को खड़ा करने का काम एक ही बलबूते हुआ। गुरु ने कहा—कर। हमने कहा—‘‘करिष्ये वचनं तव’’।। गुरु श्रीकृष्ण के द्वारा गीता सुनाए जाने पर शिष्य अर्जुन ने यही कहा कि सारी गीता सुन ली। अब जो आप कहेंगे, वही करूँगा। आलेख संप्रेषित Dr. Keshav Aacharya Goswami Shri Govardhan Peeth Giriraj Dharan Thakur Srihari Dev Ji Maharaj Govardhan Dham Mathura ।

जनक्रांति प्रधान कार्यालय से प्रकाशक/सम्पादक राजेश कुमार वर्मा द्वारा प्रकाशित व प्रसारित ।

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