दहेज प्रथा : दहेज़ प्रथा एक सामाजिक कुरुतियाँ : प्रमोद कुमार सिन्हा
दहेज प्रथा :
दहेज़ प्रथा एक सामाजिक कुरुतियाँ : प्रमोद कुमार सिन्हा
कहावत है कलम बड़ी या तलवार, कहना सत्य है संसार में कलम की ताक़त सबसे बड़ी हैं इसके सामने सारे ताक़त फेल हैं : प्रमोद कुमार सिन्हा
जनक्रांति कार्यालय से राजेश कुमार वर्मा
समाचार डेस्क, भारत ( जनक्रांति हिन्दी न्यूज बुलेटिन कार्यालय 17 सितंबर, 2021 ) । दहेज़ प्रथा उन्मूलन हेतु चाहे जितना भी कानून बना है। लेकिन इस कुरुतियों में सफलीभूत दिखता कुछ भी नहीं है। वैसे तो यह प्रथा समाज के सभी वर्णों में अपना पैर मजबूती से जमाये हुए है। लेकिन खासकर कायस्थ परिवार में इसकी भूमिका बहुत अहम् रोल अदा कर रही है । हम कायस्थों को एकजुट करने की यथा संभव प्रयास कर लें , परन्तु यहाँ आते आते हमारे पैर शिथिल हो जाते हैं और वहाँ पर हमारे सारे प्रयास निरर्थक ही नज़र आता है । एक तो कायस्थों के पास जीविका का एकमात्र साधन कलम ही है जो हमें अपने पुरखे भगवान श्री चित्रगुप्त से प्राप्त है जिसके बदौलत ही हम समाज में अपना सर उठाये अपना प्रतिष्ठा कायम किये हुए हैं । अब कहावत है कलम बड़ी या तलवार , कहना सत्य है है संसार में कलम की ताक़त सबसे बड़ी इसके सामने सारे ताक़त फेल हैं परन्तु जब हमारी जीविका मात्र कलम से ही है तब हमारा जीवन आज की परिस्थिति में किसी प्रकार हमारा जीवन निर्वहन हो जाता है । इसी जीविका निर्वहन में सार समाज , परिवार , बच्चे का लालन पालन , शिक्षा में का भार ढ़ोते ढ़ोते ही बच्चे बच्चियों का शादी विवाह का दायित्व निभाना भी पड़ता ही है कहने को तो हम कुलीन वंशज होते हैं । हमारे पास पैतृक सम्पदा के रूप में ना विषय जमीन जायदाद होता है और ना ही बैंक बैलेंस , इसी में थोड़ा मोड़ा जो बचत की राशि महफूज होती है अपने उत्तर दायित्व में कोई कोर कसर और कोताही नहीं करते हैं ।
एक अनुभव की बात मैं साझा कर रहा हूँ जब आप अपनी प्यारी लाड़ली का विवाह हेतु वर की तलाश में निकलते हैं तो खासकर दहेज़ के मामले में यह समाज लोलुपता की सीमा से भी पड़े होकर बात करता है । जिसकी जो हैसियत होती है, उससे परे आगे जाने के बाद भी बात नहीं बनती है। बात दीगर है की मैं इस उतरदायित्व से मुक्त हो चुका हूँ, लेकिन जो परिस्तिथि पूर्व मेरे द्वारा झेला गया है और वर्तमान में भी जो लोग झेल रहे हैं और आगे भी इस प्रकार की परिस्थिति से निज़ात पाना संभव प्रतीत नहीं होता, कहने का गर्ज़ है जिसके घर छप्पड़ फुस के हैं ओ भी देखा देखी चार चक्का गाड़ी और एक मोटी रकम दहेज़ मांगने में उनको जरा सा भी शर्म महसूस नहीं होता है, क्या इसी बुते पर हम कायस्थ को एक जुट करने में कामयाब हो पायेंगे ..? यों तो दहेज़ लेना और देना कानूनन अपराध है लेकिन दहेज़ देने वाला और लेने वाला इस मुद्दे पर अपनी जिह्वा को बंद ही रखता है । जब तक की कोई वाक्या घटना ना घटित हो जाये , इस प्रथा को अविलम्ब रोक की बहुत ही नितांत आवश्यकता है, क्या ऐसा संभव है ..? यदि संभव है तो हम अपने गिरेबान में ही अपने आप को झाँककर देखें समाज की सूत्रपात पहले अपने आप से ही होता है। लेकिन इसमें दो मत नहीं है । हम स्वमेव ही सुधरते नहीं हैं और दूसरे को सुधारने पर मुखर होते हैं । मैं कायस्थ चेतना फाउंडेशन से सारे समाज से चाहे ओ किसी भी वर्ण जाति या संप्रदाय से ताल्लुक रखते हों मेरी विनती पर अपने अपने ह्रदय में प्रश्रय देकर इस पर गहन चिंतन मनन करें , इससे ना केवल जाति विशेष का वरण सम्पूर्ण मानव जाति के साथ ही साथ देश हित और राष्ट्र हित की भावना से कार्य करने में कदम आगे बढ़ाते हैँ मानव जीवन का कल्याण होना दुष्कर नहीं है ।
यों देखा जाय तो सभी कौम में ये नासूर बनकर समाज और परिवार को डंस रहा है । हम प्रायः आये दिनों समाचार पढ़ते और सुनते रहते हैं अमुक जगह दहेज़ की बलिवेदी पर एक और बेटी का बलिदान हो गया, क्या बुद्धिजीवियों का समाज इस बिन्दु पर मुखर नहीं होगा..? या युंही आँख कान मूँदकर सिर्फ पढ़ने का जायका का मजा लेता रहेगा । इस पर अंकुश परम आवश्यकता ही नहीं ध्यान केंद्रित करने का विषय है । क्या इस प्रकार की परिस्तिथि से हम भिज्ञ नहीं हैँ? उत्तर यही मिलेगा हम जानबूझ कर भी इस विन्दु पर अनजान बने रहना या तटस्था का भाव अपनाते हैँ क्या ये गंभीर चिंतनीय विषय नहीं है ।
पौराणिक काल में तो लोग अपनी लाड़ली का हाथ उसी सुयोग्य नवयुवक के हाथ में समर्पित करते थे । परिवार भरण पोषण पालन कर सके इसके लिये नवयुवकों को सिद्ध करना पड़ता था और अपनी ही कमाई से गाय, बैल इत्यादि को खरीद करने और पालन पोषण में अपनी सक्षमता को सिद्ध करना पड़ता था ।
+शेषांश
मेरे लिखने का अभिप्राय यह कतई नहीं है कि इस प्रथा का उन्मूलन होना चाहिये , ये ना पहले कभी हुआ था ना हुआ है और ना ही भविष्य में कभी होगा, सृष्टि के आदि काल से राजाओं द्वारा अपनी कन्या का विवाह ऋषि मुनियों से करते रहे हैं । यह प्रथा मनु के समय से ही मुखर रहा है और ऋषियों को सम्मान से जीवन निर्वहन हेतु अच्छी अच्छी नस्लों की गायों को दान करते थे । ये कालांतर में चलता आ रहा है । महाराजा मिथिला नरेश भी स्वयंवर पश्चात महाराजा दशरथ को यथा योग्य दहेज़ प्रदान किया गया था । दहेज़ प्रदान करने की प्रक्रिया का मतलब सिर्फ एक ही था है और भविष्य में रहेगा कि जोड़े को घर गृहस्थी बसाने में कोई दिक्कत महसूस नहीं हो और वे आराम पूर्वक घर गृहस्थी बसा कर जीवन यापन कर सकें । वस्तुतः आज की परस्थिति में भी यही भावना प्रधान होता है। नई घर गृहस्थी बसाने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, जो अकेले किसी के बुते की बात नहीं है, परन्तु हम लड़की के बाप के पैसे तड़क भड़क रौशनी , गाजा बाजा धुम धड़का पटाखा और समाज में अपनी औकात और हैसियत से परे जाकर भोजन में नाना प्रकार के व्यंजनों की अधिकता जिसकी कोई खास अहमियत नहीं है में अंधाधुंध खर्च कर शादी की खुशनुमा बरकरार करने की प्रवृति को आकलन कर इस पर अंकुश लगाया जा सकता है । प्रायः ये सब फिजूल खर्ची हम अपने पैसे ना कर लड़की के बाप के पैसे से करते हैं । ये कहाँ तक न्यायोचित है.. ?
अतएव सभी कौम और जातियों से विनय पूर्वक नम्र निवेदन है इस प्रकार की दिखावा की संस्कृति पर अंकुश लगाने का प्रयास जारी होना चाहिये । और लड़की वाले भी जिनकी जैसी हैसियत है, उसके अनुरूप ही घर वर चुने और जायें, अपनी औकात और हैसियत को ध्यान में रखते हुए कदम उठायें , और लड़के वाले भी आत्म मंथन कर उसी रूप में यथा सामर्थ दहेज़ का लेन देन की बात करें तो इसमें कुछ ना कुछ सुधार होने की सम्भावना से कोई इनकार नहीं कर सकता है । अपनी पांव को उतना ही फैलाना चाहिये जिससे चादर के बाहर पैर नहीं जाये । कम से कम खर्च में फिजूल खर्ची से स्वमेव बचें और समाज को एक उदाहरण प्रस्तुत करें ।
अपनी हैसियत और औकात को दोनों पक्ष जरूर ध्यान में रखें, कौन नहीं चाहता है मेरी लाड़ली का विवाह उच्च से उच्च घराने में हो हम डाक्टर इंजीनियर बी. डी. ओ, सी. ओ, आई. ए. एस इत्यादि इत्यादि पर तभी जायें जब आपकी हैसियत और औकात हो इसमें दिखावा करना मूर्खतापूर्ण बात होगी । क्योंकि जैसी जिसकी हैसियत होगी वैसा ही सम्मान और औकात वाले संस्कार से सम्बन्ध बनता और बिगड़ता है । हमारी हैसियत नगण्य हो और हम आई. ए. एस के यहाँ सम्बन्ध जोड़ना चाहें तो कोड़ी एक बिडंबना मात्र ही होगी, कहा गया है दोस्ती और कुश्ती तथा सम्बन्ध बराबर वाले के साथ ही निभती है, इसलिए इस पर ध्यान परम आवश्यक है। दहेज़ उन्मूलन संभव तो नहीं है, लेकिन सादा समारोह पूर्वक शादी करने से लड़की वालों को कमड़ तोड़ कर्जा से राहत की सम्भावना दिख पड़ती है । जिसे अमली जमा पहनाया जा सकता है ।आज की हालात यों है हम लड़की के बाप से मनमाना खर्च पर हैसियत से अधिक माँग को रखते हुए सम्बन्ध करते हैं । कल वही लड़की दुल्हन बनकर ससुराल में पदार्पण करती है । वो जानती है की मेरे मां बाप से किस प्रकार जमीन जायदाद बेचकर खून चूसा गया है, ये याद उसे हमेशा एहसास कराता रहता है । कालांतर में वही बहु सास - ससुर की कोई वैल्यू नहीं देती है । बुढ़ापा उनका बड़ा ही कठिनता और दुर्दशा पूर्वक बीतता है और वे इधर उधर शिकायत करते रहते हैं । मैंने बच्चे को पालन पोषण में अपना जीवन दांव पर लगा दिया और बहु बेटे हमारी देखभाल ठीक ढंग से नहीं करते है या सबकुछ होते भी हम दाने दाने के मोहताज़ हैं । हमारी कोई कद्र या पुछ नहीं है । लेकिन वो अपने दिल पर हाथ रखकर अपने आप को खंगालने का ये प्रयास नहीं करते हैं की जब बेटे का घर गृहस्थी बसाने के समय कभी हमनें लड़की के पिता से बेटी का माँग किया है.? उत्तर होगा नहीं हमनें तो दहेज़ लाने वाली पुतोहू की ही माँग की थी । नतीजा आपका बुढ़ापा दुखदाई में ही व्यतीत है और होगा । अतएव इस विन्दु समस्त भारत वासियों से आग्रह करना चाहते हैं की गहनता पूर्वक अपने आप में विचार कर फिजूल खर्ची पर अंकुश लगाते हुए सादे समारोह पूर्वक सुखद और उज्जवल भविष्य की कामना के साथ यथोचित कदम उठायें , याद रखें पहला कदम आपका होगा दुनिया पीछे पीछे चलेगी, सदा एकला चलो रे........
नोट :- दहेज उन्मूलन में यथा संभव आवश्यक सुधार या संशोधन किया जा सकता है ।
जनक्रांति प्रधान कार्यालय से प्रकाशक/सम्पादक राजेश कुमार वर्मा द्वारा कार्यालय से प्रमोद कुमार सिन्हा का आलेख प्रकाशित व प्रसारित ।
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