बुढ़ापा दहलीज पर आगे बढ़ते कदम

 बुढ़ापा दहलीज पर आगे बढ़ते कदम


                                रचनाकार :प्रमोद कुमार सिन्हा 

 इतना पास रहते भी

हम अपनों से -----

लगता है कितना दूर हैँ ·

नदी के दो किनारे होते हैँ

रहते हैँ दूर दूर ----

वैसे भी दिल से मजबूर हैँ

कभी थी तरंगें उमंगें

आज है बोझिल सा मन

गुजर गया ओ मंजर

सुना हर रंग  जीवन हैँ बेरंगें

ज़िन्दगी एक मोर पर

थम सी गई है

अपने हो गये सब बेगाने

दोष किसी पर नहीं

समय सब रंग दिखाती है

अच्छे वक्त पर गैर भी अपनाने

अच्छा कर जाओ

कितने गले मिल जाते हैँ

बुरा हुआ गर कहीं तो

दोस्त भी बदल जाते हैँ

हवा को बदलते ना देखा कभी

प्रकृति को ना देखा मचलते

नदियों की धार ना मुड़ते

मनुष्य ही मनुष्य से जलते हैँ

कारवां रुकता नहीं

दिशायें कभी बदलती नहीं

जरा सा बड़प्पन क्या पा लिया

अहम् जो है कभी सुधरती नहीं

कितने शामें ढल गयी

कितनी रातें भी है बीत गयी

ज़िन्दगी के एक मोर पर खड़े हैँ

पता ही नहीं चला

बुढ़ापा कब आ गयी

यदि पिछड़ जाता तो

ज़माने तोहमत लगाने से

कभी पीछे ना हटते

आगे बढ़ गया कदम

मुड़कर पीछे ना देख सका

बाल वयां करती है कंघी लगाने से

इन्द्रिय ढीली हो गयी

मन में जवानी है छायी

कुछ ना कर सका तब

अब कुछ करने की

बारी है आयी...

जनक्रांति प्रकाशन...

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