विश्व की सबसे बड़ी आबादी वाली 05 इकाइयों में से एक उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव,2022 अगले 100 दिनों में संभावित है : पंकज कुमार श्रीवास्तव

 विश्व की सबसे बड़ी आबादी वाली 05 इकाइयों में से एक  उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव, 2022 अगले 100 दिनों में संभावित है : पंकज कुमार श्रीवास्तव


जनक्रांति कार्यालय से राजेश कुमार वर्मा



दुनिया की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी-भारतीय जनता पार्टी-के लिए सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा हिन्दू-मुसलमान, कब्रगाह- श्मसान,जिन्ना-तालिबान है।ऐसे में,मुल्क में साम्प्रदायिकता की चुनौती को गंभीरता से देखने-सुनने, जानने-समझने की जरूरत है......


साम्प्रदायिकता:एक चुनौती: कुछ आयाम

समाचार डेस्क,भारत ( जनक्रांति हिन्दी न्यूज बुलेटिन कार्यालय 20 नवंबर, 2021 ) । हिन्दू पूरब की तरफ मुँह कर पूजा करते हैं तो मुसलमान पश्चिम की तरफ मुँह कर नमाज अदा करते हैं। कुछ हिन्दु साकार ब्रह्मकी पूजा करते हैं तो मुसलमानोंको बुतपरस्ती गवांरा नहीं।(वह तो मोहम्मद पैगम्बर साहब का रेखाचित्र बनाये जाने पर भी भड़क जाते हैं ) हिन्दुओंके लिए गाय माता है और गो हत्या उन्हें उद्वेलित करती है,तो मुसलमान गोवध पर पाबंदी स्वीकार नहीं कर पाते। हिन्दू काली पूजा से लेकर शिव अराधना तक के लिए मदिरा चढा़ते हैं तो मुसलमान शराब को सार्वजनिक तौर पर छूते भी नहीं। कुछ हिन्दु सुअर की माँस खा लेते हैं तो मुसलमानों के लिए सुअर गाली सदृश है। इतिहास के इस दौर तक आते-आते हिन्दु एक पत्नी वादी हो गए थे तो मुसलमानों में बहु पत्नी वाद बदस्तूर जारी थी।हिन्दुओं के लिए विवाह जन्म और मृत्यु की तरह एक संस्कार है और यह एक जन्म ही नहीं सात जन्म का रिश्ता है तो मुसलमानों में तलाक की घटना एक आम बात है। दुनिया के मुसलमानों के लिए सिर्फ एक पैगम्बर है, जिसकी वो इबादत करते हैं तो हिन्दुओं के छतीस हजार देवी-देवताओं के अतिरिक्त तुलसी, पीपल, बरगद से लेकर सागर और कैलाश पर्वत तक पूजनीय एवं वंदनीय है।जीवनशैलीके दृष्टिकोण से मुस्लिम परिवारोंमें बकरी, बतख से लेकर मुर्गी तक पालने की परम्परा रही है और इन पाले गए पशु-पक्षियों को भी अपना आहार बनाने से वह परहेज नहीं करते जबकि कई माँसाहारी हिन्दु परिवारों के रसोई में मुर्गी अंडा सख्त वर्जित है और पालतू जीव को खाने से वह परहेज करते हैं । हिन्दुओं के पूजा के अवसर पर कुंआरी कन्याओंको भोजन करवाया जाता है, आराध्य देवियों में माँ काली, दुर्गा, सीता, राधा की पूजा तो आम बात है।लेकिन मुसलमानों में नारी की स्थिति दोयम दर्जे की ही है,उन्हें घर की चहारदिवारियों में या तो कैद रखा जाता है या फिर बाहर निकली भी तो बुर्के में।


ब्रिटिश हुकूमत को अपना वजूद बनाए रखने के लिए आवश्यक दिखा था कि इन विभाजन रेखाओंको यथासंभव उभारा जाय और इन विभाजन रेखाओं को उभारने वाले पात्र की हर महत्वाकांक्षा को हवा दी जाय। ब्रिटिश हुकूमत की इस चाल का मोहरा बने-मरहूम मो० अली जिन्ना। जिन्ना ने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरूआत एक राष्ट्रवादी नेताके रूपमें की थी। एक राष्ट्रवादी की तरह उन्होंने लोकमान्य बालगंगाधर तिलक पर राजद्रोह का केस चलने पर अदालत में उनकी वकालत की थी। अपनी जीवनशैली में वे पारम्परिक मुसलमान थे भी नहीं। उन्होंने एक विधर्मी-अपने एक पारसी मित्र की बेटी-रतन बाई-से निकाह किया था। वह नमाज भी अदा नहीं करते थे, कुरान की आयतें उन्हें याद भी नहीं थी। वह सुअर का माँस खाते थे, वह बेहतरीन अंग्रेजी शराबत्रके शौकीन थे, उनके अंतरंग मित्रों में कोई मुसलमान नहीं था, अपने दिल्ली प्रवास के दौरान वह गैर-मुस्लिम मित्रों के यहाँ ही ठहरते थे। उन्हें ऊर्दू आती भी नहीं थी- भारत-पाक विभाजन के बाद कायद-ए-आजम के रूप में राष्ट्र के नाम अपना पहला संदेश भी उन्होंने अंग्रेजी में दिया था जिसका ऊर्दू अनुवाद बाद में प्रसारित किया गया। जिन्ना पाकिस्तान के कायद-ए-आजम के रूप में प्रतिष्ठापित जरूर हुए लेकिन एक अलग राष्ट्र-पाकिस्तान का मूल प्रस्ताव उनका था भी नहीं, पाकिस्तान के रूप में मुसलमानों के लिए एक अलग राष्ट्र का प्रस्ताव इण्लैंड के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के छात्र रहमत अली ने जब उनके सामने पहली बार लंदन के एक होटल में रखा था तो जिन्ना ने उसे सिरे से खारिज कर दिया था।


लेकिन, जिन्ना की त्रासदी यह थी कि इस मुल्क के आम- आवाम के दिलो-दिमाग पर महात्मा गांधी का व्यक्तित्व छाया हुआ था और इस बात का उनको पूरा इलहाम था कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सत्ता की बागडोर उसे ही मिलेगी, जिसे महात्मा गांधी का आशीर्वाद प्राप्त होगा। वह महात्मा गांधी के आभा मंडल से दूर रहना चाहते थे।चर्चिल की तरह अपनी एरिस्टोक्रेट जीवनशैली के कारण जिन्ना को भी यह ‘अधनंगा फकीर’ धूर्त दिखता था। गांधी उन्हें कायद-ए-आजम कहते थे। लेकिन जैसे-जैसे स्वतंत्रता प्राप्ति एक अवश्यंभावी सच्चाई दिखने लगी-जिन्ना में सत्ता सुख के सपने जोर मारने लगे और जिन्ना की यह सत्ता लिप्सा ही थी । जिसने भारतीय मुसलमानों के लिए एक अलग राष्ट्र-पाकिस्तान-की माँग के लिए जिन्ना को अभिप्रेरित किया और एक बार जब जिन्ना ने दिवास्वप्न सरीखे पाकिस्तान की माँग उठायी तो इस सपने को हकीकत में बदलने के लिए जी- जानसे जुट गए।
जिन्नाकी सत्ता लिप्साके कारण ब्रिटिश उपनिवेशवाद की समाप्ति के समय व्यापक हिन्दु-मुस्लिम दंगे हुए, लाखों मुसलमान हिन्दुस्तान छोड़कर पाकिस्तान जा बसे, लाखों हिन्दु और सिक्ख पाकिस्तानसे हिन्दुस्तान आ गए।लेकिन,आज स्वतंत्रता प्राप्तिके 74 वर्ष बाद और 06 दिसम्बर, 1992 की अप्रिय घटना के बावजूद,जिसमें रामजन्म भूमि विवादके लिए बाबरी मस्जिद ढाही गई, इस मुल्क में साम्प्रदायिक सौहार्द्र बना हुआ है।
जहाँ तक सिक्ख धर्मकी बात है तो तथाकथित सिक्ख धर्म के प्रवर्तक गुरूनानकको कभी एहसास ही नहीं रहा होगा कि वह किसी नए धर्म के प्रवर्तक हैं। वह तो उस जमानेमें हिन्दू धर्म में आ गए पाखण्डके विरूद्ध एक मुकम्मल आवाज थे। सिक्ख धर्मके गुरूतेग बहादूर और गुरू गोविन्द सिंह हिन्दू धर्म के प्रतिनिधिके तौर पर ही औरंगजेब के शासन की क्रूरता से लोहा लेते रहे। यह परम्परा सन् 1947तक बदस्तूर जारी रही। हिन्दू- मुस्लिम साम्प्रदायिक उन्माद के सबसे वीभत्स दौर-1947 में भारत विभाजन के समय दंगों के दौरान सिक्खों ने हिन्दूओं के साथ ही मुस्लिम आक्रामकता झेली। भारत पाकिस्तान विभाजन के दौरान जितने गैर-मुस्लिमोंने पश्चिमी पाकिस्तानसे भारतका रूख किया, उसमें एक बड़ी आबादी सिक्खों की भी थी। पंजाब-हरियाणाके गाँवोंमें एक लम्बी परंपरा रही है कि हिन्दू परिवारमें अगर चार बेटे हों तो एक बेटा,यथासम्भव सबसे बड़ा बेटा-सिक्ख होगा।
हिन्दू समाजमें आ रहे पाखण्डके विरूद्ध एक मुकम्मल आवाज आर्य समाजके संस्थापक दयानंद सरस्वती भी थे और जो लोग हिन्दू और सिक्ख धर्म को अलग- अलग करके देखते हों, उन्हें याद रखना होगा कि शहीद-ए-आज़म भगत सिंह एक हिन्दू,एक सिक्ख ही नहीं, एक आर्यसमाजी परिवार से ताल्लुक रखते थे।वह आर्यसमाजी थे या सिक्ख थे और हिन्दू नहीं थे, यह बात उस समय तो क्या आज भी कोई स्वीकार नहीं कर पाएगा।
ब्रिटिश शासकों की ‘बांटो और राज करो’ की नीति भारतीय हुक्मरानों को भी रास आयी थी। भारतीय लोकतत्रंमें भी‘चेक और बैलेंस'का खेल खूब खेला गया और इसी खेलका हिस्सा था पंजाबमें ज्ञानी जैल सिंह बनाम् दरबारा सिंह, या फिर दरबारा सिंह बनाम् संत जरनैल सिंह भिंडरवाला का खेल। इस खेलमें अन्तर्राष्ट्रीय षडयंत्रने भी अपनी भूमिका निभाई। आपरेशन‘ब्लू स्टार’के विरूद्ध खुशवंत सिंह और डॉ० महीप सिंह जैसे विद्वानों ने अपने-अपने पद्म पुरस्कार वापस कर दिए थे। खुफिया एजेंसी ने भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी को आगाह किया था कि सिक्ख बाॅडीगार्डोंसे उन्हें खतरा हो सकता है,-लेकिन सिक्ख होने के कारण किसी को बाॅडीगार्ड की जिम्मेवारी से हटाना इन्दिरा जी ने स्वीकार नहीं किया था। बेअंत सिंह और सतवंत सिंह जैसे बाॅडीगार्डाें की गोली की शिकार इन्दिरा जी खुद हुई थीं और इन्दिरा जी की हत्या के बाद हिन्दूओं और सिक्खों में एक - दूसरे को शक की निगाह से देखने की प्रवृति बढी़ थी, पूरे भारतमें सिक्खविरोधी दंगे हुए थे, लेकिन आज कोई छतीस वर्ष बाद हिन्दू-सिक्ख साम्प्रदायिकता विलोपित हो चुकी है।

ब्रिटिश व्यवसायियोंने भारतमें अपने कदम मुगल सम्राट जहाँगीर के कार्यकालमें ही रख दिए थे और भारतीय उप महाद्वीप में ईसाईयत का प्रवेश उसी दौरमें हो गया था। आज भारत में ईसाइयों की संख्या 2.80 करोड़ अर्थात् 2.03% है। ईसाईयतने अपने पैर पसारनेमें कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई और एक गम्भीर धैर्यका परिचय दिया। बहुत ही वैज्ञानिक तरीके से वह पहले उन इलाकों की शिनाख्त करते हैं,जहाँ उन्हें काम करना होता है। वह सबसे पहले शिक्षा और स्वास्थ्यके क्षेत्रमें अपनी पहल करते हैं। छोटा ही सही, एक स्कूल खोलते हैं, उस गाँव-क्षेत्र में साक्षरता दर के सुधार के  गम्भीर प्रयास करते हैं, स्वास्थ्यके प्रति जागरूकता लाते हैं, बच्चों को स्कूलों में ईसाईयत के प्रभाव में लाते हैं और फिर एक उपकृत व्यक्ति,परिवार या समाज ईसाईयत स्वीकार करने को अभिप्रेरित हो जाता है।शिक्षा और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता के साथ-साथ अविकसित क्षेत्रों के लोगोंके जीवन-स्तरमें गुणात्मक परिवर्तनके लिए मिशनरी संस्थाएँ गम्भीर प्रयास करती हैं। ईसाईयत फैलानेके लिए आक्रामकता, हिंसा,जोर-जबरदस्तीका सहारा ईसाई मिशनरी संस्थाएँ नहीं लेतीं या फिर उनके खिलाफ आक्रामकता दिखाए जाने पर भी प्रति-आक्रामकताका परिचय नहीं देतीं।
कहने का अभिप्राय यह कि संकीर्ण मानसिकता ने समय- समय पर इस मुल्क में हिन्दू बनाम मुसलमान, हिन्दू बनाम सिक्ख, हिन्दू बनाम ईसाई की संकीर्णता उभारने की हर चंद कोशिश अवश्य की है, लेकिन यहाँ कोई अयातुल्ला खुमैनी या कोई ओसामा बिन लादेन अपनी फिरकापरस्त मनसूबों में कभी कामयाब नहीं हो पाया।
यही नहीं तथ्य यह भी है कि इस माटी की मौलिकता ने इस्लाम को भी प्रभावित किया। इस्लाम में जाति प्रथा की कोई सम्भावना कहीं से नहीं है,लेकिन भारतीय मुसलमानों में जातिप्रथा मुकम्मल मौजूद है। मुस्लिम साम्प्रदायिकता की वजहके कारण ही मुस्लिमों के बीच अशिक्षा अभी भी मौजूद है। वह विज्ञानके चमत्कारों के प्रति अस्वीकार्यता प्रदर्शित करने से बाज नहीं आते।पर्दा प्रथासे लेकर परिवार नियोजन तक अनेक बिन्दु ऐसे हैं, जहाँ भारतीय मुसलमानोंने अप्रगतिशील रवैया अपनाया है।
लेकिन, दशकों ही नहीं, सदियों तक साथ-साथ जीने-मरने के कारण भारतीय हिन्दू और मुसलमानों ने एक-दूसरेके प्रति पर्याप्त सहिष्णुता और सह-अस्तित्व दिखाया है। अजमेर शरीफ से लेकर शेख सलीम चिश्ती की दरगाह तक हिन्दूओंने मत्था टेका है और हिन्दुओं ने ऐसा कोई वैवाहिक आयोजन नहीं किया जिसमें सुहाग की प्रतीक चूड़ियाँ मुस्लिम चूड़ीहारों से न खरीदी गई हों। इस माटी की सर्व-धर्म-समभावकी इस खूबीको ही महात्मा गाँधी ने अपने भजनमें स्वर दिया था- ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान।’
उपरोक्त आलेख पंकज कुमार श्रीवास्तव, स्नातक (पत्रकारिता), स्नातकोत्तर (प्रबंधन), 1.सेवानिवृत्त प्रबंधक, झा.रा.ग्रामीण बैंक, डाल्टनगंज(झारखंड) 2.पूर्व अतिथि संकाय(ग्रामीण बैंकिंग), जेवियर समाज सेवा संस्थान,रांची का मूल आलेख है। अगर इससे किसी को कोई मानसिक ठेस पहुंची हो तो प्रकाशक इसके लिए क्षमाप्रार्थी है।


जनक्रांति प्रधान कार्यालय से प्रकाशक/सम्पादक राजेश कुमार वर्मा द्वारा कार्यालय रिपोर्ट प्रकाशित व प्रसारित ।

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