होली - महादेवी वर्मा की जयंती पर विशेष- ''हमारी संवेदना का उत्स ही सूख गया है...'':- महादेवी वर्मा

 होली - महादेवी वर्मा की जयंती पर विशेष-

''हमारी संवेदना का उत्स ही सूख गया है...'':- महादेवी वर्मा

जनक्रांति कार्यालय से पंकज कुमार श्रीवास्तव वरिष्ठ पत्रकार की रिपोर्ट


"आशीर्वाद के दो शब्द!"
उन्होंने अपनी कलम मँगवाई और लिखा-
"तुम वसन्त के प्रथम सुमन हो,
काँटों में खिल जाना सीखो।
सुरभित मधुमय हो-वन,उपवन,
सौरभ मधु बरसाना सीखो।। महादेवी वर्मा


समाचार डेस्क, भारत ( जनक्रांति हिन्दी न्यूज बुलेटिन कार्यालय 15 मार्च 2022 )। चालू सप्ताह में ही होली है।होली रंग और गुलाल का त्योहार है, हंसी-ठिठोली का त्योहार है, लेकिन हिंदी साहित्य में रूचि रखने वालों के लिए यह माताजी-महादेवी वर्मा की जयंती है।
माताजी की मेरी पहली याद 31जूलाई,1979 की है। प्रेमचंद स्वर्ण जयन्ती समारोह के सिलसिले में प्रेमचंद रंगशाला, राजेन्द्र नगर ,पटना के गेट के निकट वाले गोलम्बर पर प्रेमचंद की मूर्ति स्थापित की गई थी। उस प्रतिमा-अनावरण के सरकारी समारोह के लिए वह पटना पधारी थीं।प्रेमचंद के साथ अपने आत्मीय संबंधों के संदंर्भ में उन्होंने कई संस्मरण सुनाते हुए कहा था-जिस व्यक्ति को धन का मोह कभी सताया नहीं,उस व्यक्ति का मूलनाम धनपत राय था,जिस व्यक्ति को नबाबी कभी रास नहीं आई उस व्यक्ति ने नबाब राय के नाम से ऊर्दू में कहानियाँ लिखीं और जिस व्यक्ति के दिल में प्रेम का अजस्त्र श्रोत अनवरत बहता हो,वह व्यक्ति हिन्दी में प्रेमचन्द के नाम से ख्यात हुआ।


1983 में मैं पलामू क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक की सेवा में आ गया था और मेरी पदस्थापना गढ़वा हुई थी।थोड़े दिनों बाद महिलाओं पर केन्द्रित कोई कार्यक्रम कर रहा था।उस कार्यक्रम के लिए माताजी का आशीर्वाद लेने अशोक विहार कालोनी, इलाहाबाद स्थित उनके आवास जा पहुँचा था।दोपहर के 3-4 बजे का वक्त रहा होगा। अहाते में जो नन्हें बच्चे बैट-बाॅल से क्रिकेट खेल रहे थे,उन बच्चों ने सूचित किया था कि दोपहर में वह किसी मेडिकल थेरेपी से गुजरती हैं,इस कारण किसी से मिल नहीं सकती।मैंने बच्चों से ही एक पन्ना कागज माँगा था,उस पर एक पत्र लिखा और उन बच्चों के हाथ भिजवा दिया।बच्चों ने लौट कर जो कागज दिया-उस पर माताजी ने नारी पर केन्द्रित संस्कृत में एक श्लोक लिखा था।नारी की सृजनशीलता और रचनाधर्मिता पर एक अत्यन्त छोटा किन्तु सारगर्भित वक्तव्य आशीर्वाद स्वरूप लिख भेजा था। इस प्रकार माताजी के आवास पर उनसे मिलने की पहली कोशिश दर्शन कर पाने के मामले में भले असफल रही हो,उनकी हस्तलिपि में उनका वह आशीर्वाद मेरे व्यक्तिगत लाईब्रेरी की महत्वपूर्ण थाती है।( हालाँकि सहयोगी,सहायक डाॅ.रामजी पाण्डे ने बता दिया कि जब भी दर्शन की कामना हो शाम सात बजे के बाद आ जाऊँ, दिवानखाने में वह बैठती हैं,खुला दरबार है,किसी को विशिष्टता की कोई तरजीह नहीं,किसी की कोई उपेक्षा नहीं)
उनके आवास पर उनका दर्शन करने की दूसरी कोशिश मैंने जोगी के साथ की थी,लेकिन हमदोनों असफल रहे थे क्योंकि माताजी कहीं गईं थी।(हालाँकि हमारा यह प्रयास इन अर्थो में सार्थक रहा था कि हम प्रेमचंद के बेटे और सुभद्राकुमारी चौहान के दामाद अमृत रायजी का दर्शन कर लौटे थे।)
आखिरकार तीसरे प्रयास में मैं सफल हो ही गया था।(तारीख याद नहीं)पूरे कमरे में कालीन बिछी थी।बड़े से दीवान पर वह बैठीं थी।अपनी लापरवाही में मैं बिना चप्पल उतारे ही कालीन पर चढ़ गया।उन्होंने टोका-अरे!चप्पल तो बाहर खोलकर आओ!


मैं दीवान पर उनकी बगल में जा बैठा।मुझे किसी ने टोका नहीं लेकिन थोड़ी देर में ही एक सज्जन आए,माताजी के पैर छूए और कालीन पर बैठ गए।उनके संस्कार ने मुझे प्रभावित किया,मुझे अपनी भूल का एहसास हुआ।मैं भी दीवान से उठ कर उनके बगल में बैठ गया।
वह एक इन्कम टैक्स कमिश्नर थे जो लखनऊ में पदस्थापित थे।दिल से साहित्यकार थे। उनका नया काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ था। उसकी पाँच प्रतियाँ उन्होंने माताजी के चरणों में रखा और कहा-"गुरुजी!नई पुस्तक आई तो आपके चरणों में समर्पित करने बाद ही लोकार्पण करवाऊँगा!"
(मैंने लक्ष्य किया-महादेवीजी लम्बे समय तक प्रयाग विद्यापीठ की उप-कुलपति रहीं थी,अतः प्रयाग विद्यापीठ ही नहीं इलाहाबाद के शैक्षणिक माहौल में पली बढ़ी दो पीढ़ी उन्हें गुरुजी कहकर ही संबोधित करती थी।)
माताजी ने आगे चुटकी ली-पत्नी को बताया?
"गुरुजी!अभी बताना खतरे से खाली नहीं है। दो-चार लोग पढ़ लेंगे,अच्छी प्रतिक्रिया दे लेंगे।तब लोकार्पण का आयोजन करूँगा। उस आयोजन के पहले उसे बाजार लिवा जाऊँगा।उसके लिए एकाध नई साड़ी खरीद दूँगा।उस नई साड़ी में उसे लोकार्पण समारोह में चलने की बात करूँगा तब जाकर बात बनेगी।"
कमिश्नर साहब बोलते रहे और माताजी एक मुस्कान के साथ सबकुछ सुनती रहीं।उन्होंने अपने परिहास को आगे बढ़ाया-"तुम अपने बच्चों की माँ को निरा बेवकूफ समझते हो। वह तुम्हारे बच्चों को पालपोस कर,पढ़ा-लिखा कर शारीरिक और मानसिक रूप से सबल और सक्षम क्यों बनाएगी..?


"बेवकूफ नहीं, गुरुजी ! अबोध ! अपने समाज में हम बेटियों की परवरिश ही कुछ इस तरह करते हैं कि उनकी दुनिया बहुत सीमित होकर रह जाती है। बहुत कम उम्र में ही उन्हें एहसास करा दिया जाता है कि जिस घर में वह पल बढ़ रही है,वह घर उसका नहीं है। अच्छे-भले पढ़े-लिखे परिवारों में भी इंटर-बीए तक लड़कियों की शादी कर दी जाती है।शादी हो गई तो सास-ससुर,जेठ-जेठानी की सेवा,देवर-ननद के साथ की जिन्दगी, पति के प्रति समर्पण और फिर बच्चे हो गए तो उनका लालन-पालन। ........लेकिन गुरुजी ! एक पीढ़ी के बाद सबकुछ ऐसा नहीं रह जाएगा,वक्त बदल रहा है...... यह समाज भी बदल रहा है।"
आज इन पंक्तियों को लिखते वक्त ध्यान आ रहा है-महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में इस देश,विशेषकर हिन्दी प्रदेशों में समाज-राष्ट्र ने पिछले 30-32 वर्षों में लम्बी दूरी तय की है।revolution से न सही,revealation से ही सही पूरा परिदृश्य बदला-बदला नजर आ रहा है।सब कुछ अच्छा ही है,नहीं कह पाऊँगा लेकिन बहुत कुछ सकारात्मक है,रचनात्मक है.....एक निरन्तर आशावादी की तरह इसमें निरन्तर सुधार की मैं संभावना देखता हूँ।
.......इन्कम टैक्स कमिश्नर साहब जा चुके थे। मैं अकेला बाहरी व्यक्ति रह गया था। टीवी पर 'चित्रहार' जैसा फिल्मी गीतों का कार्यक्रम आने लगा था।घर में हर छोटे-बड़े लोग आसपास इकट्ठा हो गए थे।मैं माताजी से पूछता हूँ-"इस संचार क्रान्ति के बारे में क्या कहना चाहेंगी,आप?"
"इस माध्यम ने बच्चों को असमय जवान कर देने का सामाजिक अपराध किया है!.....मैं तो इसे खरीदती भी नहीं।लेकिन,टीवी पर जिस दिन फिल्म आती,घर के छोटे बड़े सब फिल्म देखने पड़ोस में चले जाते,मैं यहाँ अकेली रह जाती थी।"
मैंने धीरे-से अपनी बात आगे बढ़ाई-मेरी पीढ़ी ने गाँधी-नेहरु-पटेल की पीढ़ी को नहीं देखा।एक जयप्रकाशजी थे जिन्होंने दुनिया की क्रान्तियों का विषद अध्ययन किया हुआ था।ईमानदार थे,कर्मठ थे,जूझारू थे, कल्पनाशील थे,दूरद्रष्टा थे लेकिन 1977 की वोट क्रान्ति के बाद जिस प्रकार उन्होंने अपना जनान्दोलन स्थगित किया,मुझे तो वह दिग्भ्रमित दीखे।......और जब वह आज हैं नहीं उनकी आलोचना भी उचित नहीं।....संक्रमण के इस दौर में भविष्य के लिए आप क्या संभावना देखती हैं?"
"देखो!इतिहास रोज-रोज नहीं बना करते।

पीढ़ियों के सद्-इच्छा और संकल्प के बाद गाँधी जैसा व्यक्तित्व सामने आता है,जिसके व्यक्तित्व और कृतित्व में एक चुँबकीय आकर्षण होता है,जो इतिहास की धारा को अपने मनोनुकूल मोड़ देने की क्षमता रखता है।.....चुँबक छोटे-बड़े लोहे के टुकड़ो और बुरादों को खुद में सटा लेता है।उसी प्रकार, गाँधीजी का व्यक्तित्व चुम्बक था तो नेहरू-पटेल से लेकर लोहिया जयप्रकाश तक लोहे के छोटे बड़े टुकड़े थे और असंख्य लोग लोहे के बुरादे की तरह रहे हैं।
.......अभी गाँधी को गए आधी शताब्दी नहीं बीती.....जयप्रकाशजी को गए आधा दशक नहीं बीता......इसलिए यह ज्वाला राख के ढेर में दबी-ढकी भले हो,इतनी जल्दी बुझने से रही।......मैं तो नहीं रहूँगी....लेकिन तुम्हारी पीढ़ी या उसके बाद वाली पीढ़ी के लोग भी इस मशाल को जलाए रखेंगे....और इतिहास को एक नई दिशा में ले जाने में सक्षम होंगे लेकिन तुमलोगों ने अपनी ऐतिहासिक जबाबदेही नहीं निभाई तो इतिहास गलत दिशा ले लेगा और तब पीढ़ियों तक पथभ्रष्ट ही रहे......."
मैं आह भरता हूँ-".......अब तो विनोबाजी भी नहीं रहे....."
"मैंने तो बाबा को कह दिया था-जब इतिहास तुमसे मुखरता की माँग कर है तो तुमने मौन साध लिया है।तुम बोलोगे लेकिन तब तुम्हारी सुनने वाला कोई नहीं होगा।......."
माताजी ने जयप्रकाश आन्दोलन के उफान, आपात्काल की घोषणा,जयप्रकाशजी-मोरारजी सहित लाखों लोगों की गिरफ्तारी, उस समय विनोबा भावे के प्रति बढ़ी जन-अपेक्षा,विनोबा भावे के एक वर्ष तक के मौन-व्रत,1983 में गो-हत्या के खिलाफ आमरण-अनशन.....और फिर आमरण अनशन करते हुए मृत्यु के वरण पर एक तल्ख टिप्पणी की थी।
मैं तल्खी की स्थिति में आगे बात नहीं करना चाहता था।मैंने विदा लेना ही उचित समझा।मैंने जेब से सादा कागज निकाला और उनके सामने रख दिया।माताजी ने पूछा-"यह,क्या?"
"आशीर्वाद के दो शब्द!"
उन्होंने अपनी कलम मँगवाई और लिखा-
"तुम वसन्त के प्रथम सुमन हो,
काँटों में खिल जाना सीखो।
सुरभित मधुमय हो-वन,उपवन,
सौरभ मधु बरसाना सीखो।।
माताजी से मेरी अंतिम मुलाकात 23जून,1985को हुई थी। मुंबई में बैंक ऑफ इंडिया के लिए पीओ का इंटरव्यू देकर लौट रहा था। माताजी का दर्शन करने के लिए इलाहाबाद में ही उतर गया। इलाहाबाद जंक्शन के सिविल लाइंस साइड से रिक्शा किया और माताजी के दरबार में हाजिर हो गया। उन्हें बताया तो उन्होंने डॉ रामजी पाण्डेय की पत्नी को आवाज लगाई-अरे गीता!देखो,इसको- मुंबई से चला आ रहा है,पटना जाएगा!क्या खिलाफ रही हो,इसको!
मेरे सामने बनारसी लंगड़ा काट कर प्लेट में आ गया। मैंने आशीर्वाद और भोग स्वरूप इसे ग्रहण किया।
शहर में कोई संगीत समारोह आयोजित होने वाला था।आयोजक प्रयाग विद्यापीठ का हॉल माताजी से मांग रहे थे। माताजी ने एकबारगी न कह दिया।आयोजक गिड़गिड़ाने लगा-माताजी!आपकी मौखिक सहमति के बाद निमंत्रण पत्र छप चुके हैं,बंट चुके हैं।इस मोड़ पर आप इनकार कर देंगी,तो मैं शहर में मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाऊंगा।


लेकिन, माताजी अपने स्टैंड पर कायम थी-बेरोजगारी चरम पर है,युवा पीढ़ी को रोजी-रोटी के लाले पड़े हैं और तुम्हें गाने-बजाने की पड़ी है?ये हताश-निराश युवा हॉल की दरवाजे खिड़कियां तोड़ देंगे।
आयोजक गिड़गिड़ाने लगे-माताजी!हमारा सौभाग्य होगा कि इतनी भीड़ जुटे कि लोग हॉल की दरवाजे खिड़कियां तोड़ दे।यहां इस शहर में शास्त्रीय संगीत देखने, सुनने,समझने वाले हैं ही कितने? कलाकारों को बिना मानदेय-पारिश्रमिक आने के लिए तैयार किया गया है, कुछ चंदा करके लाइट,साउंड, 200कुर्सियों की व्यवस्था हो पाई है!जो दो सौ लोग जुटेंगे,वह भी अंत तक टिके रहेंगे इसकी संभावना कम ही रहेगी।
मैं चौंकता हूं-क्या महज सौ-दो सौ लोग। हमारे पटना में तो दशहरा से दिवाली-चित्रगुप्त पूजा तक रात-रात भर लोकसंगीत, सुगम संगीत, शास्त्रीय संगीत, नृत्य की महफिलें लगती हैं, और दर्शक-श्रोता रातभर खड़े-खड़े इन आयोजनों का लुत्फ उठाते हैं।
आयोजक हां में हां मिलाते हैं-हां, भाईसाहब, मैंने भी सुनी है,पटना के सुधी और कला मर्मज्ञ श्रोताओं और दर्शकों की चर्चा।लेकिन, हमारे इलाहाबाद में तो ऐसा नहीं है।
तभी माताजी अपने तेवर ढीली करती दिखीं-तो हॉल दे ही दूं क्या..?
अब तक चुप बैठे डॉ रामजी पाण्डे ने आयोजक महोदय को धीरे-से फुसफुसाया-जल्दी से एक आवेदन पर अनुमति ले लीजिए, वरना कब मति बदल जाए।
आयोजक महोदय एक कागज निकालकर जल्दी-जल्दी आवेदन लिखने लगे।
अब माताजी ने ठहाका लगाया-अरे!एक ही बात के लिए कितने आवेदन दोगे और कितनी अनुमति लोगे-दिन में ही तो तुम्हारा आवेदन लेकर फलां आया था और मैं अनुमति दे चुकी हूं।
....अब,ठहाका लगाने की बारी सबकी थी-दरअसल,माताजी हॉल उपलब्ध कराने की अनुमति पहले ही दे चुकी थी, लेकिन आयोजक महोदय से बस चुहल कर रही थीं।... आयोजक महोदय खुश-खुश बाहर निकल चुके थे।


तभी टीवी पर अटलांटिक महासागर में कनिष्क विमान एयरक्रैश हो गया था और लगभग 323यात्री भी मारे गए थे। माताजी की बूढ़ी और अनुभवी आंखों से आंसूओं की अविरल धारा बह निकली।...हॉल में बैठा हर शख्स निःशब्द था।करीब दस मिनट बाद माताजी ने खुद को संभाला-हमारी संवेदना का उत्स ही सूख गया है।... पशुओं के लिए हम अभ्यारण्य बनाने का स्वांग करते हैं और मनुष्यों को अरण्यरोदन के लिए रोता-बिलखता छोड़ने का षड्यंत्र करने से बाज नहीं आते।
....लगभग 37वर्ष हो गए-इस मुलाकात के,जब कभी किसी षड्यंत्र के तहत कोई अमानवीय घटना घटती है, नरसंहार की कोई घटना घटती है-मेरे कानों में माताजी का स्वर गूंजता है-हमारी संवेदना का उत्स ही सूख गया है।


जनक्रान्ति प्रधान कार्यालय से पंकज कुमार श्रीवास्तव द्वारा सम्प्रेषित आलेख प्रकाशक/सम्पादक राजेश कुमार वर्मा द्वारा प्रकाशित व प्रसारित।

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