मिथिलांचल में प्रसिद्ध नव विवाहित सुहागिन महिलाओं का प्रमुख पर्व मधुश्रावणी व्रत आज से आरम्भ : पंकज झा शास्त्री

 मिथिलांचल में प्रसिद्ध नव विवाहित सुहागिन महिलाओं का प्रमुख पर्व मधुश्रावणी व्रत आज से आरम्भ : पंकज झा शास्त्री


जनक्रांति कार्यालय रिपोर्ट



सावन का महीना आते ही मधुश्रावणी के गीत गूंजने लगते हैं। नवविवाहित औरतें नमक के बिना 14 दिन भोजन ग्रहण करती है : पंकज झा शास्त्री

अध्यात्म डेस्क/मधुबनी, बिहार ( जनक्रांति हिन्दी न्यूज बुलेटिन कार्यालय 18 जुलाई, 2022 ) ।मधुश्रावणी व्रत बिहार के मिथिलांचल का मुख्य पर्व है। मधुश्रावणी का व्रत नव विवाहित औरतें अपने मायके में मनाती हैं। इस व्रत में पत्नी अपने पति की लंबी आयु की कामना करती है। इस व्रत में विशेष पूजा गौरी शंकर की होती है। सावन का महीना आते ही मधुश्रावणी के गीत गूंजने लगते हैं। मधुश्रावणी की तैयारियों में सभी शादीशुदा महिलाएं जुड़ जाती हैं।

यह त्योहार महिलाएं बहुत ही धूम धाम के साथ दुल्हन के रूप में सज धज कर मनाती हैं। शादी के पहले साल के सावन महीने में नव विवाहित महिलाएं मधुश्रावणी का व्रत करती है। सावन के कृष्ण पक्ष के पंचमी के दिन से इस व्रत की शुरुआत होती है।


मधुश्रावणी जीवन में सिर्फ एक बार शादी के पहले सावन को किया जाता है। यह व्रत नवविवाहित महिलाएं करती है। नवविवाहित औरतें नमक के बिना 14 दिन भोजन ग्रहण करती है। इस व्रत में अनाज,  मीठा भोजन खाया जाता है। व्रत के पहले दिन फलों को खाया जाता है। यह पूजा लगातार 14 दिनों तक चलती है। इन दिनों सुहागन व्रत रखकर मिट्टी और गोबर से बने विशहारा और गौरी शंकर का विशेष पूजा कर महिला पुरोहिताइन से कथा सुनती है। कथा की शुरुआत विशहरा के जन्म और राजा श्रीकर से होती है। मधु श्रावणी व्रत के अंतिम दिन टेमी दागने की प्रक्रिया महत्वपूर्ण होता है।
(मधुश्रावणी व्रत का महत्व)👉


भगवान शिव जी और माता पार्वती से संबंधित त्योहार मनाये जाते हैं। सावन के महीने में मधुश्रावणी नाम का त्योहार भी मनाया जाता है। मधुश्रावणी को बिहार के मिथिला में बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। देवी माता पार्वती और भगवान शिव जी की पूजा की जाती है। इसी दिन पत्नी अपने पति की लंबी उम्र की कामना करती है। इस दिन कई तरह की कहानियां और कथाए बुजुर्गों द्वारा सुनाई जाती है । पंडित पंकज झा शास्त्री ने बताया कि इस पूजा की कथा व्रती अपने पति के साथ सुनती है तो और भी अच्छा माना गया है।


मधुश्रावणी व्रत कथा👉


राजा श्रीकर के यहां कन्या का जन्म हुआ, तो राजा ने पंडितों को बुलाकर उसकी कुंडली दिखाई। पंडितों ने कहा कि कन्या की कुंडली में कोई दोष है, जिससे इन्हें सौतन के तालाब में मिट्टी ढोना पड़ेगा। राजा यह बात सुनकर दुखी हो गए और कुछ समय बीतने के बाद वह परलोक सिधार गए। फिर राजा श्रीकर के पुत्र चंद्रकर राजा बने। उनका अपनी बहन के साथ बहुत प्यारा भरा संबंध था, इसलिए वह नहीं चाहते थे कि उनकी बहन को सौतन के दबाव में रहना पड़े।


चंद्रकर ने एक सुनसान जंगल में सुरंग बनवा दी, जिसमें एक दासी के साथ राजकुमारी के रहने की व्यवस्था करवा दी ताकि उनकी मुलाकात किसी भी पुरुष से ना हो। लेकिन उनकी किस्मत में कुछ और लिखा था। एक दिन सुवर्ण नाम के राजा उस जंगल में आए और शिकार ढूंढते हुए उस सुरंग के पास आ गए। राजा को प्यास भी बहुत लगी थी इसलिए वह जंगल में पानी की तलाश कर रहे थे।

अचानक राजा की नजर चीटियों पर गई, जो मुंह में चावल का दाना डालकर कतार में चल रही थी। राजा ने उन चीटियों का पीछा किया तो वह एक सुरंग के अंदर पहुंच गए। राजा सुवर्ण की मुलाकात राजकुमारी से हुई और दोनों ने विवाह कर लिया। कुछ समय तक दोनों सुरंग में ही साथ रहते थे। कुछ दिनों बाद राजा को अपने राज्य की याद सताने लगी, तो उन्होंने राजकुमारी से जाने की आज्ञा मांगी। राजकुमारी ने कहा कि सावन महीने की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मधुश्रावणी का त्योहार होता है। उस दिन नवविवाहित महिलाएं ससुराल से आए अन्न खाती हैं और ससुराल से आए नए कपड़े पहनती हैं। इसलिए मधुश्रावणी पर आने से पहले इन्हें भेज देना। राजा ने राजकुमारी की बात सुन ली और स्वीकार कर ली और साथ ही कहा कि वह भी उसको अपने साथ ले जाएगा । राजा राजधानी लौट गए।


राजा ने प्रमुख वस्त्र बनाने वाले को बुलाया और चुनरी बनवाई। जब यह बात राजा की पहली पत्नी को पता चली तो उसने वस्त्र बनाने वाले को लालच देकर चुनरी पर छाती, लात, झोंटा, हाथ लिखने का आदेश दिया जिसका मतलब यह था कि उसकी सौतन उसकी छाती पर लात मारेगी और बाल पकड़कर उसको खींचेगी। वस्त्र बनाने वाले ने चुनरी को इस तरह लपेट कर राजा को दी  कि राजा समझ ना पाए कि इस चुनरी पर कुछ लिखा है। राजा ने समय आने पर वह चुनरी एक कौए को पहुंचाने के लिए दी क्योंकि पुराने समय में कौए को संदेश वाहक के रूप में बताया गया है।


कौआ वस्त्र लेकर जा रहा था कि उसकी नजर भोज पर गई और वह सब भूल गया। चुनरी को छोड़कर जूठन खाने लग गया। मधुश्रावणी के दिन राजकुमारी के पास वस्त्र और अन्न नहीं पहुंचा और वह नाराज हो गई। उस दिन उसने सफेद फूल और सफेद चंदन लेकर माता पार्वती की पूजा की और देवी से यह प्रार्थना की कि जिस दिन राजा से उसकी भेंट होगी उसे उसकी आवाज चली जाए। दूसरी ओर राजकुमारी के भाई चंद्रकर को पता चला कि उनकी बहन का विवाह हो गया है तो बहुत नाराज हुए और उन्होंने अपनी बहन के लिए खाने पीने का सामान भेजना बंद कर दिया।


01 दिन पता चला कि साथ में तालाब खोदने का काम चल रहा है, तो राजकुमारी अपनी दासी  के साथ तालाब पर चली गई ताकि गुजारे के लिए धन मिल जाए। संयोग की बात यह है कि उस दिन राजा सुवर्ण भी वहां पर आए हुए थे क्योंकि राजा की पहली पत्नी तालाब को खुदवा रही थी । राजा ने राजकुमारी को पहचान लिया और अपनी गलती के लिए माफी मांगी। राजा राजकुमारी को अपने साथ लेकर वापस महल चले आए और राजकुमारी को रानी का स्थान दिया। राजकुमारी कुछ नहीं बोली और इसका कारण राजकुमारी की दासी से पता चला कि उनके द्वारा भिजवाई गई चुनरी राजकुमारी को नहीं मिली।

राजा ने जब घटना की जांच करवाई तो सारी बातें सामने आई और पता चला कि यह सारी उलझन कौए की वजह से हुई।
राजा ने चुनरी की तालाश करवाई, जिस पर रानी का भेजा संदेश लिखा था। राजा इस बात पर रानी से बहुत नाराज हुआ और उसने रानी को मौत की सज़ा दी। अगले साल जब मधुश्रावणी आई, तो राजकुमारी ने लाल रंग के फूल और लाल वस्त्र से माता पार्वती की पूजा की। इसके साथ राजा सुवर्ण और राजकुमारी वर्षों तक वैवाहिक जीवन का सुख भोगते रहे।
शादीशुदा नवविवाहित महिला फल पत्ते तोड़ते समय कथा सुनते वक्त एक ही साड़ी हर दिन पहनती हैं। पूजा स्थान पर रंगोली बनाई जाती है। फिर नाग नागिन, विशहारा पर फूल पत्ते चढ़ाकर पूजा करती है। महिलाएं गीत गाती है, कथा पढ़ती और सुनती है।
पूजा शुरु होने से पहले नाग नागिन और उनके 5 बच्चे को मिट्टी से बनाये जाते हैं। साथ ही हल्दी से गौरी बनाने की परंपरा शुरू की जाती है। 14 दिनों तक हर सुबह नवविवाहिताएं शाम में फूल और पत्ते तोड़ने जाती है; इस त्योहार में प्रकृति की भी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है। मिट्टी और हरियाली से जुड़ी इस पूजा के पीछे पति की लंबी आयु की कामना होती है।
इस पर्व के दौरान मैथिली भजनों और लोकगीत की आवाज लगभग हर घर से सुनाई देती है। हर शाम महिलाएं आरती करती हैं और गीत गाती है। यह त्योहार नव विवाहित महिलाएं सज धज कर मनाती हैं। पूजा केआखिरी दिन पति का शामिल होना बहुत जरूरी होता है। साथ ही पूजा के आखिरी दिन ससुराल से बुजुर्ग नए कपड़े ,मिठाई, फल आदि के साथ पहुंचते हैं और सफल जीवन का आशीर्वाद देते हैं।
ससुराल से आए अनाज से तैयार होता है भोजन यह व्रत औरतें अपने मायके में मनाती हैं। इसमें वह नमक नहीं खाती और जमीन पर सोती है। रात में वह ससुराल से आए अनाज से भोजन करती हैं। पूजा के लिए नाग-नागिन, हाथी, गौरी, शिव की प्रतिमा बनाई जाती है और फिर इनका पूजन फूलों, मिठाइयो और फल को अर्पित करके किया जाता है। पूजा के लिए रोज ताजे फूलों और पत्तों का इस्तेमाल किया जाता है।


जनक्रांति प्रधान कार्यालय से प्रकाशक/सम्पादक राजेश कुमार वर्मा द्वारा ज्योतिष पंकज झा शास्त्री की रिपोर्ट प्रकाशित व प्रसारित।

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