आश्विन की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा,रास पूर्णिमा भी कहा जाता है। इस बार शरद पूर्णिमा 09 अक्टूबर 2022,रविवार को मनाई जायेगी :पंकज झा शास्त्री

 आश्विन की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा,रास पूर्णिमा भी कहा जाता है। इस बार शरद पूर्णिमा 09 अक्टूबर 2022,रविवार को मनाई जायेगी :पंकज झा शास्त्री


जनक्रांति कार्यालय पंकज झा शास्त्री की रिपोर्ट


इस पूर्णिमा का मिथिला में विशेष महत्व होता है। इस रात मिथिला में कोजागरा पूजा मनाई जाती है। इस दिन सूर्यास्त के बाद मां लक्ष्मी की पूजा की जाती है। जहां मिथिलांचल में इस पूजा को कोजगरा के नाम से जाना जाता है :पंकज झा शास्त्री

अध्यात्म डेस्क/दरभंगा,/मधुबनी/बिहार ( जनक्रांति हिन्दी न्यूज बुलेटिन कार्यालय 07 अक्टूबर, 2022)। कोजगरा को देखते हुए बाजारों मे  मखान,केला,बांस की डाला दिखने लगी है, लोगों की मांग पूरी करने हेतु व्यापारी भी सामग्री जुटाने लगे है, वैसे उपरोक्त सामाग्री की दामों मे काफी उछाल देखी जा रही है । जिससे कन्या पक्ष सामाग्री कम खरीद पा रहे है। ज्यादा तर कन्या पक्ष सामग्री के बदले वर पक्ष को उपहार स्वरुप कुछ रुपया ही देकर काम चला लेना चाहते है।


आश्विन की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा,रास पूर्णिमा भी कहा जाता है।   इस बार शरद पूर्णिमा 09 अक्टूबर 2022,रविवार को मनाई जायेगी इस पूर्णिमा का मिथिला में विशेष महत्व होता है। इस रात मिथिला में कोजागरा पूजा मनाई जाती है। इस दिन सूर्यास्त के बाद मां लक्ष्मी की पूजा की जाती है। जहां मिथिलांचल में इस पूजा को कोजगरा के नाम से जाना जाता है।  मिथिला समाज में इस दिन नवविवाहित वर के यहां कन्या पक्ष वालों के घर से आए भार को बांटने की परंपरा है। कई लोग सुबह से निर्जला व्रत रख संध्या को मां लक्ष्मी की विशेष पूजा करते हैं।


प्राचीन मान्यताओं के अनुसार राजा जनक ने भगवान श्री राम के लिए किया था कोजगरा। पंडित पंकज झा  शास्त्री ने बताया मिथिला की लोक संस्कृति में यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। इसकी शुरुआत त्रेतायुग में राजा जनक द्वारा हुई थी। पहला कोजगरा भगवान श्री राम के लिए राजा जनक ने की थी। जनक राजा ने राम व सीता के लिए कोजगरा की पूजा कर अपने यहां से राम के लिए पान, केला, मखान, लड्डू आदि भार के रूप में भेजा था। तब से लेकर आज तक ये पर्व कोजगरा के रूप में मनाया जा रहा है।

नवविवाहित वर-वधू की सुख-शांति के लिए की जाती है ये पूजा।  इस दिन घर में विवाह के उत्सव जैसा माहौल रहता है। ये पूजा करने से नए वर-वधू के जीवन में सुख-शांति बनी रहती है। इस दिन कन्या वालों के पक्ष से वर के परिवार के लिए कपड़ा, खाजा, चूड़ा, दही, मखाना, पान, बताशा आदि उपहार के रूप में दिया जाता है। इसे ही भार कहा जाता है। इसके बाद वर के पिताजी वर के चूमाउन उपरांत उस भार को चंगेरा (डाली) में भरकर पूरे गांव टोला  के लोगों  में बांटते हैं। वर को ससुराल से आए कपड़े पहनाने के बाद महिलाएं वर का चुमावन करती हैं। चुमावन के बाद वर अपने साले या साली के साथ पच्चीसी का खेल खेलता है। इस खेल में हारने वाला जीतने वाले को उपहार देता है। इस दौरान मैथिली लोक गीत-संगीत भी गाई जाती है।


पंडित पंकज झा शास्त्री ने बताया कि पौराणिक कथाओं के अनुसार इस दिन यानि आश्विन मास की पूर्णिमा तिथि को देवी लक्ष्मी की समुद्र मंथन से उत्पत्ति शरद पूर्णिमा हुई थी। जिस कारण इस तिथि को धन-दायक माना जाता है। मान्यता है कि इस दिन देवी लक्ष्मी धरती पर विचरण करती हैं। इस दौरान जो लोग रात्रि में जागकर इनका पूजन व जागरण करते हैं, उन पर इनकी कृपा बरसती हैं और धन-वैभव प्रदान करती हैं।


कहा जाता इस दिन चंद्रमा अपनी पूर्ण कलाओं के साथ होता है और पृथ्वी पर चारों ओर  चंद्रमा की उजियारी फैली होती है। धरती जैसे दूधिया रोशनी में नहा रही होती है ऐसा प्रतीत होता है। माना जाता है कि इस दिन चंद्रमा की किरणों से अमृत की बरसात होती है, इसलिए शरद पूर्णिमा की रात्रि में चांद की रोशनी में खीर रखने की और अगले दिन सुबह पूरे परिवार के साथ प्रसाद रूप मे खीर खाने की  परंपरा प्रचलित है और इससे दरिद्रता का नाश होता है।


जनक्रांति प्रधान कार्यालय से प्रकाशक/सम्पादक राजेश कुमार वर्मा द्वारा कार्यालय से अध्यात्म विचार पंडित पंकज झा शास्त्री की विचार प्रकाशित व प्रसारित।

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